-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
‘द वायरल फीवर’ यानी टी.वी.एफ. वाले ढेरों पसंदीदा सीरिज़ बना चुके हैं। इनकी ‘पंचायत’, ‘गुल्लक’, ‘एस्पिरेंट्स’ जैसी सीरिज़ को लोगों ने दिलों में बिठाया है। अब इन्हीं के बैनर से दिल्ली की पृष्ठभूमि पर कोई ऐसी सीरिज़ आए जिसमें सास-बहू की बातें हों, परिवार की बातें हों तो उम्मीद की जानी चाहिए कि वह भी बढ़िया होगी, दिल में जगह बनाएगी, कहीं जम कर बैठ जाएगी। मगर अफसोस, हर कारीगर हर बार उम्दा माल ही बना दे, यह कोई ज़रूरी तो नहीं।
ज़ी-5 पर आई इस सीरिज़ ‘सास बहू अचार प्राइवेट लिमिटेड’ की कहानी हमें पुरानी दिल्ली के दरिया गंज-चांदनी चौक इलाके में ले जाती है जहां एक परिवार की बहू अपने पति की दूसरी शादी के बाद अलग रह कर आम के अचार के अपने बिज़नेस को जमाने में लगी है। इस काम में उसकी सास भी उसका साथ दे रही है। उनकी बरकत से पति परेशान है क्योंकि वह उस इलाके में सबसे ज़्यादा बिकने वाले अचार की कंपनी में नौकर है और साथ ही उसकी मां और बच्चे उसकी तलाकशुदा बीवी से चिपके जा रहे हैं।
ठोकर खाई नारी के संघर्ष करने और जीतने की कहानियां हम लोग देखते आए हैं। इस कहानी में यह नारी अचार बना-बेच कर लड़ रही है। यहां सिर्फ हालात खलनायक हैं, लोग नहीं। उसकी सास तक उसके साथ है, बच्चे उसे चाहते हैं और उसके पति की दूसरी बीवी तक उससे हमदर्दी रखती है। बनाने वालों ने कहानी कहने का सलीका भी कुछ अलग चुना है जिसमें कहानी की परतें धीरे-धीरे खुलती हैं। लेकिन इस कहानी में दमखम की कमी तो है ही, नमक-मसाले का भी अभाव है। आप इंतज़ार करते हैं कि अब कुछ बड़ा होगा, कोई ऐसा ट्विस्ट आएगा जिससे उस स्त्री का संघर्ष आपको अपना संघर्ष लगने लगेगा, वह जब जीतेगी तो आप उसे अपनी जीत मानेंगे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं होता, और जब होता है तब तक आप इस कहानी के रूखेपन से ऊब चुके होते हैं। हाल के बरसों में फिल्मकारों ने हर संघर्ष की जीत के पीछे मीडिया के बवाल का ही हाथ दिखाया है। यह घिसा हुआ तरीका इस सीरिज़ को हल्का बनाता है।
पहली बड़ी दिक्कत स्क्रिप्ट के साथ रही है जिसमें सहज प्रवाह नहीं है। जो हो रहा है वह उतना दमदार नहीं है जितने की आप उम्मीद करते हैं। छह एपिसोड में छह संवाद भी ऐसे नहीं होंगे जिन्हें सुन कर दिल में कसक उठी हो। तर्कों की बात तो आप कीजिए ही नहीं। एक सीन में दिल्ली की कड़कती हुई सर्दी की शिकायत कर रही बूढ़ी सास अगले सीन में पोते के साथ बर्फ वाली आइसक्रीम खा रही है जबकि दिल्ली की सर्दियों में यह वाली आइसक्रीम सड़कों पर मिलती ही नहीं। पोता जिस तरह का स्कूल बैग लेकर जाता है वह बैग अब यहां कोई इस्तेमाल नहीं करता। ‘दिल्ली’ तो पूरी सीरिज़ में महसूस ही नहीं हुई। बार-बार ड्रोन शॉट से जामा मस्जिद का इलाका दिखा देने भर से दिल्ली दिलों में नहीं उतरा करती। बहू सिर्फ और सिर्फ आम के अचार के दम पर क्रांति लाने निकली है जबकि दिल्ली में न बारहों महीने यह अचार बनता है, न बिकता है। अचार वाले आम ही बारहों महीने नहीं मिलते। 180 का अचार बेच कर सेल्स-गर्ल को 90 रुपए कौन देता है? और उसका बनाया अचार खाते ही हर इंसान की आंखें चौड़ी क्यों हो जाती हैं? क्या धरती पर एक वही ‘उम्दा अचार मेकर’ है? मान लीजिए, उसका बनाया अचार साधारण होता तो उसका संघर्ष कैसा रहता?
कास्टिंग भी इस सीरिज़ की अच्छे-से नहीं की गई है। दिल्ली वाली बहू के किरदार में अमृता सुभाष जैसी काबिल अभिनेत्री भी फिट नहीं रहीं। सास बनीं यामिनी दास ने हालांकि बहुत अच्छा काम किया। अनूप सोनी जैसे दमदार अभिनेता को बहुत ही छोटा और कमज़ोर रोल मिला। शुक्ला जी बने आनंदेश्वर द्विवेदी सबसे मिसफिट रहे। वह कहीं से भी यू.पी. के किसी गांव से आए और घूम-घूम कर बैल्ट बेचने वाले नहीं लगे। उनकी ज़ुबान का ‘शहरीपन’ उनकी पोल खोलता रहा। अंत में टी.वी. एंकर बन कर आए सलीम सिद्दिकी जमे। अंजना सुखानी, मनु बिष्ट, निखिल चावला आदि सही रहे।
बिल्कुल ही खाली बैठे हों, दुनिया भर के काम निबटा दिए हों, जीवन में अब करने को कुछ न बचा हो तो इस सीरिज़ को देखिए। बोर हों तो फास्ट फॉरवर्ड का ऑप्शन तो है ही… और छोड़ने का भी।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि सिरीज़ कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-08 July, 2022
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)