-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
कहतें हैं कि पूरी दुनिया में दो धंधे हैं जिनमें सबसे ज़्यादा कमाई होती है-हथियार और दवाइयां। इंडियन फार्मा इंडस्ट्री ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में दवाइयां बनाने वाली कंपनियां अपनी दवाइयों को बनाने, पास करवाने और बेचने के लिए तमाम तिकड़में अपनाती हैं। जियो सिनेमा पर आई यह वेब-सीरिज़ ‘पिल’ भारत में फैले इस गोरखधंधे के अंदर झांकने का प्रयास कर रही है।
फोरएवर क्योर फार्मा नामक कंपनी अपनी दवाइयां बाज़ार में उतारने से पहले ज़रूरी औपचारिकताएं पूरी किए बिना फटाफट ट्रायल करती है, सरकारी विभाग में टेबल के नीचे से उन्हें पास कराती है और लोगों की जान से खिलवाड़ करती है। सरकारी टीम इंस्पैक्शन करने जाती है तो उनका एक कर्मचारी एक फाइल फेंक देता है। वह फाइल किसी के हाथ लग जाती है। भ्रष्ट सरकारी विभाग का एक ईमानदार डॉक्टर इन तमाम रावणों से अकेले ही भिड़ा हुआ है। ज़ाहिर है, अंत में जीत सच की ही होनी है।
आठ एपिसोड की इस सीरिज में विस्तार से बताया गया है कि किस तरह से दवाइयां बनाने वाले लोग डॉक्टरों को लुभाते हैं ताकि मरीज़ों को फांसा जा सके। इन लोगों की पहुंच सिस्टम में बैठे हर उस शख्स तक होती है जो इनके काम अटका सकता है। लेकिन कहीं न कहीं, कोई न कोई शख्स ऐसा निकल ही आता है जो झुकने से इंकार कर देता है।
विषय बहुत अच्छा लिया गया। उस पर कहानी भी बढ़िया बुन ली गई। लेकिन इस कहानी को फैला कर पटकथा में तब्दील करते समय लेखकों की कल्पनाओं की रफ्तार मंद पड़ गई और यही कारण है कि यह सीरिज़ देखते समय वह तनाव, वह रोमांच, वह कसक, वह तड़प नहीं होती जो इस किस्म के विषयों पर बात करते समय होनी चाहिए। स्क्रिप्ट की कमज़ोरी के अलावा किरदारों को बुनते समय भी लेखकों ने हल्का हाथ रखा है। ईमानदार डॉक्टर को लल्लू दिखाना ज़रूरी था क्या? उससे बिहारी लहज़े में बुलवाना ज़रूरी था क्या? लेखकों को समझना चाहिए कि फार्मा कंपनी का अरबपति मालिक शेयर बाज़ार की खबरें अगले दिन की अखबार से नहीं पढ़ता, मार्किट बंद होते समय ही उसे पता चल जाता है। सरकारी लोग यूं सस्पैंड नहीं किए जा सकते। नए-नए उगे पत्रकार अपने संपादक से ऐसे बात नहीं किया करते। और हम दिल्ली वाले ओखला नामक जगह को ‘ओखाला’ तो कत्तई नहीं बोलते। कोर्ट के सीन बेहद लचर हैं। डॉक्टर की बीवी इतनी इरिटेटिंग क्यों है? और ये बीवियां अपनी मर्ज़ी से जब चाहे पति का साथ दे रही हैं, जब चाहे उन्हें दुत्कार रही हैं, क्यों?
रितेश देशमुख का किरदार हल्का है लेकिन उनका काम भारी। पवन मल्होत्रा हर बार की तरह छाए रहे। बाकी कलाकार ठीक-ठाक रहे। निर्देशन साधारण है। सच तो यह है कि यह पूरी सीरिज़ ही हल्की है, कमज़ोर है, किसी कम विटामिन वाली गोली की तरह।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-12 July, 2024 on Jio Cinema
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Aj har system ki sachai h ye
Par result not satisfied
मतलब यह पिल चिल करने लायक तो बिल्कुल नहीं है 👍
फ़िल्म में ऐसा कुछ नया नहीं है जोकि साउथ कि फिल्मों में पहले से ही न दिखाया गया हो….it is just an idea taken from the south movie.