-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
अपने रिव्यू को कोई और सीरियसली ले या न ले, लेकिन लगता है कि ‘पंचायत’ बनाने वालों ने पिछले सीज़न का मेरा रिव्यू बड़ी ही तसल्ली से न सिर्फ पढ़ा बल्कि उस पर अमल भी किया है। (सीज़न एक का रिव्यू पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
अमेज़न पर आई वेब-सीरिज़ ‘पंचायत’ को इसकी ग्रामीण पृष्ठभूमि, सरल किरदारों, सादगी और सहजता के लिए पसंद किया जाता है। इसके पिछले सीज़न के रिव्यू में मैंने लिखा था, ‘‘इसमें कोई सिलसिलेवार कहानी नहीं है जो एक बिंदु से शुरू होकर दूसरे तक जाए। यहां कहानी नहीं, किस्से हैं। ऐसा लगता है जैसे कोई धारावाहिक चल रहा है जिसके हर एपिसोड में कोई एक बात उठती है और आधे घंटे बाद बैठ जाती है। दिक्कत यह भी है कि इन किस्सों में उतना गाढ़ापन भी नहीं है जो इन्हें गांव या गांव की समस्याओं से जोड़ सके।’’ अब सीज़न 2 देखिए तो यह शिकायत दूर होती है। इस बार इसमें न सिर्फ कहानी के सिरे एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं बल्कि इनमें ज़्यादा कसावट न होते हुए भी आपको बांधे रखने का दम है। यही काफी है।
पिछली बार आखिरी एपिसोड में प्रधान जी की बेटी रिंकी के आने से जो उम्मीद बंधी थी वह उम्मीद इस बार भी बस बंधी ही रही, खुल कर सामने न आ सकी। लगता है इसे बनाने वाले कई सारे सीज़न बनाने का लालच अपनी मुट्ठी में लिए बैठे हैं। उन्हें वक्त रहते समझना और संभलना होगा कि कहीं उनकी यह बंधी हुई मुट्ठी खुलने तक खाक न हो जाए। दर्शक को नायक-नायिका के बीच की कैमिस्ट्री जब महसूस हो तो ठीक उसी वक्त लेखक को थोड़े और रासायनिक समीकरण बना देने चाहिएं थे।
पिछली बार मैंने यह भी लिखा था कि पंचायत सचिव अभिषेक त्रिपाठी के चेहरे पर हर समय निराशा, मुर्दनी, उदासीनता, बेबसी और गुस्से के भाव रहते हैं। लेकिन इस बार अभिषेक पहले से काफी सहज दिखे। अलबत्ता पिछली बार की तरह इस बार भी दो-एक जगह गालियां हैं जो चुभती हैं। जब आप पारिवारिक दर्शकों और बच्चों तक को पसंद आने लगे हों तो यह बेवजह की लंठई क्यों?
कहानी का प्रवाह इस बार भी छोटे-छोटे किस्सों से ही बना है। हर एपिसोड में कोई बात उठी, उसका समाधान हुआ और किस्सा खत्म। हां, इस बार ये किस्से गाढ़े हैं, प्रभावी हैं और पिछली बार से ज़्यादा हंसाते भी हैं। हां, अंतिम एपिसोड ने इस कदर भावुक किया कि मैं फूट-फूट कर रोया। ग्राम्य जीवन की जिस सहजता, सरलता ने पिछली बार आपका मन मोहा था इस बार उसे और अधिक मात्रा में परोसा गया है। कहीं-कहीं संवादों में मुंबईया टच (समोसा ‘पार्सल’, 12वें ‘माले’ का फ्लैट) से बचा जाता तो और बढ़िया रहता।
अब बात एक्टिंग की। दरअसल इस सीरिज़ के ज़मीनी किरदार और उनमें लिए गए कलाकार ही इसकी सबसे बड़ी पूंजी हैं। हर किरदार का चित्रण एक खास खांचे में किया गया है और वह उसे लगातार पकड़े भी रहता है। इन्हें निभाने वाले तमाम कलाकारों ने दम लगा कर काम किया है। रघुवीर यादव, नीना गुप्ता, तो मंजे हुए हैं ही, जितेंद्र कुमार, फैज़ल मलिक, दुर्गेश कुमार, सुनीता राजवर आदि खूब जंचे। रिंकी बनी संविका बहुत प्यारी लगीं। विधायक जी के किरदार में पंकज झा अपने प्रति भरपूर नफरत उपजा पाने में कामयाब रहे। कैमरा, लोकेशन, गीत-संगीत खूब असरदार रहा।
बरसों पहले दूरदर्शन पर ‘यह जो है ज़िंदगी’ नाम से एक धारावाहिक आता था। चंद किरदार, हर बार कुछ नया किस्सा और ज़िंदगी चलती रहती थी। यही इस सीरिज़ की भी ताकत है। इसमें ज़िंदगी की खुशबू आती है। इसे मन भर संजो लेना चाहिए।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि सीरिज़ कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-18 May, 2022
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
जितना सहज सरल पंचायत है उतनी ही समीक्षा। बिना नमक मिर्च मसाला 😅
जल्द देखते हैं 😍🙏
धन्यवाद
Zrur dekege Panchayat