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Home फिल्म/वेब रिव्यू

वेब-रिव्यू : किस्सों से जम गई ‘पंचायत’

Deepak Dua by Deepak Dua
2020/04/16
in फिल्म/वेब रिव्यू
0
वेब-रिव्यू : किस्सों से जम गई ‘पंचायत’
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-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)

‘अबे गांव में नौकरी मिल रही है। यही उम्र है, कर ले एडवेंचर।’

‘सिंपल ज़िंदगी चाहिए यार। नहीं करना मुझे एडवेंचर।’

लेकिन पढ़ाई-लिखाई में औसत रहे शहरी बाबू अभिषेक त्रिपाठी अब बेमन से पहुंच गए हैं जिला बलिया के गांव फुलेरा के पंचायत सचिव बन कर। दिन भर पंचायत के सरकारी काम करते हैं और रात में एम.बी.ए. की तैयारी। कई महीने बाद भी गांव को तो वह नहीं अपना पाए अलबत्ता गांव ने उन्हें ज़रूर अपना लिया है।

असली वाले गांव-देहात के फिल्मों और टेलीविज़न से गायब होने की शिकायतें अक्सर होती है। ऐसे में किसी वेब-सीरिज़ में किसी वास्तविक गांव का दिखना सुखद लगता है। इधर आ रहीं वेब-सीरिज़ ने अपने लिए जिस तरह की इमेज हासिल कर ली है वैसे माहौल में अमेज़न प्राइम पर ‘पंचायत’ का आना सुकून भी देता है। लेकिन क्या इतने भर से बात बन जाती है? क्या गांव-गांव चिल्ला देने भर से कहानी गांव की मिट्टी से जुड़ जाती है? काश, कि ऐसा होता। अफसोस, कि ऐसा नहीं हुआ है।

इस सीरिज़ की दिक्कत यह है कि इसमें कोई सिलसिलेवार कहानी नहीं है जो एक बिंदु से शुरू होकर दूसरे तक जाए। यहां कहानी नहीं, किस्से हैं। ऐसा लगता है जैसे कोई धारावाहिक चल रहा है जिसके हर एपिसोड में कोई एक बात उठती है और आधे घंटे बाद बैठ जाती है। दिक्कत यह भी है कि इन किस्सों में उतना गाढ़ापन भी नहीं है जो इन्हें गांव या गांव की समस्याओं से जोड़ सके। जो बातें उठाई जाती हैं उनमें सादगी, सहजता और सरलता भले ही हो, रफ्तार, पैनापन और कसावट जैसी वे चीज़ें नहीं हैं जो किसी किस्से को आपके मन में उतारने और लंबे समय तक जमाए रखने की ताकत रखती हैं।

शुरू में शाहरुख खान वाली फिल्म ‘स्वदेस’ के ज़िक्र से लगता है कि गांव वालों की दिक्कतों पर बात होगी, महिला प्रधान चुने जाने के बावजूद उनके ‘प्रधान-पतियों’ द्वारा कामकाज संभालने की कुरीति पर बात होगी, शहरी बाबू के आने से उपजने वाले किसी बदलाव की बात होगी, किसी किस्म के जन-जागरण की बात होगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं होता। मजबूरी का मारा नायक बेमन और उदासीन भाव से खुद को पहले से चल रहे सिस्टम के हाथों में सौंप देता है। सच तो यह है कि उसे इस कहानी का ‘नायक’ कहना भी सही नहीं होगा। हां, आखिरी एपिसोड में बात कुछ पटरी पर आती है और इसके आखिरी सीन में लगता है कि अब अगले सीज़न में गाड़ी न सिर्फ रफ्तार पकड़ेगी बल्कि पटरी पर भी रहेगी। इंतज़ार अब अगले सीज़न का है।

दरअसल, अपने यहां की वेब-सीरिज़ को बनाने और बनवाने वालों के साथ यही समस्या है कि वे हर चीज़ को खींचने में लगे हुए हैं। इनके पास कहानी होती है तीन-चार घंटे की लेकिन उसे खींच-खींच कर सात-आठ घंटे की कर देते हैं ताकि सात-आठ एपिसोड के कम से कम दो सीज़न तो बन ही जाएं। इस सीरिज़ में ऐसी बहुत सारी बातें हैं जिन्हें बेबात खींचा गया है। रही-सही कसर पंचायत सचिव अभिषेक त्रिपाठी के चेहरे पर हर समय छाई रहने वाली निराशा, मुर्दनी, उदासीनता, बेबसी और गुस्से के भावों ने पूरी कर दी है। ऐसा भी क्या कि बंदा कभी मुस्कुराए ही न। हालांकि संवादों और परिस्थितियों से हर एपिसोड को यथासंभव हल्का-फुल्का बनाए रखा गया है। इसीलिए इसे देखते समय आपके होठों पर एक हल्की-सी मुस्कुराहट बनी रहती है। इसी मुस्कुराहट और गांव के अलग किस्म के विषय के चलते ही इसे देखा जा सकता है। एक एपिसोड में बेमतलब ठूंसी गई गालियों से भी बचा जाना चाहिए था।

लेखक चंदन कुमार ने स्क्रिप्ट को रोचक बनाए रखने की हरमुमकिन कोशिश की है लेकिन बित्ता भर कहानी को मील भर खींचने का दबाव उनके लेखन में साफ झलकता है। दीपक कुमार मिश्रा ने अपने निर्देशन से ज़रूर प्रभाव छोड़ा है। कहीं-कहीं बनावटीपन झलकने के बावजूद उनके पांव नहीं उखड़े हैं। लेखक और निर्देशक ने पंचायती राज पर बनी गोविंद निहलानी की फिल्म ‘संशोधन’ पर भी ज़रा शोध किया होता तो वे इस सीरिज़ को और पैना बना सकते थे। कैमरा-वर्क गज़ब है और बैकग्राउंड म्यूज़िक असरदार।

अभिषेक बने जितेंद्र कुमार कुछ जगह काफी ओवर रहे लेकिन उन्हें अपने किरदारों में प्रवेश करना आता है, यह बात वह हर बार साबित कर देते हैं। रघुवीर यादव तो अभिनय के उस्ताद हैं ही। उप-प्रधान बने फैज़ल मलिक भी कमाल के रहे हैं। नीना गुप्ता को उनके कद के मुताबिक किरदार नहीं मिल पाया लेकिन उनका आना सुहाता है। मजमा लूटने का काम किया है विकास के रोल में चंदन राय ने। लोकेशन विश्वसनीय रही मगर स्थानीय कलाकारों का कायदे से इस्तेमाल नहीं हो पाया। भोपाल रंगमंच के अजय सिंह पाल जैसे सधे हुए कलाकार सिर्फ छाया भर को दिखे।

(सीज़न 2 का रिव्यू पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि सिरीज़ कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)

Release Date-03 April, 2020

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

Tags: ajay singh palchandan kumarchandan roydeepak kumar mishraFaisal Malikjitendra kumarneena guptaPanchayat Reviewraghubir yadavपंचायत
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