-दीपक दुआ…
2015 में आए अपने पहले उपन्यास ‘बनारस टॉकीज’ से नई वाली हिन्दी में सशक्तता से पैर जमाने वाले लेखक सत्य व्यास ने ‘दिल्ली दरबार’, ‘चौरासी’, ‘बागी बलिया’ और ‘उफ्फ कोलकाता’ से अपनी पहचान लगातार मजबूत ही बनाई है। उनका यह नया उपन्यास ‘1931 देश या प्रेम?’ उनकी छवि को और निखारने का ही काम कर रहा है। 1931 का वह वक्त जब भारतीय सशस्त्र क्रांतिकारी विद्रोह अपने चरम पर था। भगतसिंह और साथियों को फांसी दी जा रही थी। वैसे समय में पंजाब और हिन्दी पट्टी से कोसों दूर बंगाल के मिदनापुर में भी क्रांतिकारी गतिविधियां चरम पर थीं। वही मिदनापुर जहां जन्मे खुदीराम बोस को अंग्रेजी हुकूमत 1908 में ही फांसी दे चुकी थी और जिस की माटी ने वीर सपूतों को जन्म देना कभी बंद ही नहीं किया। उसी मिदनापुर की पृष्ठभूमि में कुछ क्रांतिकारियों के निजी और सामाजिक जीवन के साथ-साथ उनके दृढ़ इरादों और पक्के वादों की कहानी कहते इस उपन्यास के लिए स्वयं लेखक का आग्रह है कि इसे ‘क्रांतिकारी आंदोलनों के वक्त में हो रही सत्य घटनाओं के मध्य एक कथा मान कर पढ़ा जाए।’ हालांकि इसे पढ़ते हुए कथा सरीखा आनंद ही आता है लेकिन भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास की हल्की-सी भी जानकारी रखने वाले सुधि पाठक इस कथा में से छलकते इतिहास की बूंदों को फौरन अपनी ओक में भर लेंगे।
प्रख्यात क्रांतिवीर बिमल दासगुप्ता, इतिहास में जिनके अद्भुत कारनामे दर्ज हैं और जो वर्ष 2000 तक जिए, उन्हें केंद्र में रखती हुई इस कहानी में और भी कई वास्तविक व काल्पनिक पात्र हैं जिनकी सोच और विचारों के बहाने से यह कथा दरअसल पाठकों को उस दौर के युवाओं के अंतस में ले जाती है। वह दौर जब मां माटी के कई सपूत घर, परिवार, नौकरी, प्यार और अपने जीवन तक का मोह त्याग कर देश पर मर मिटने को बावले हुए जा रहे थे।
अपनी लेखन-शैली से पाठक को कस कर बांधने वाले सत्य व्यास की भाषा पर अद्भुत पकड़ है। अभी तक के उनके उपन्यासों से अलग इस कहानी में वह देश और काल का ध्यान रखते हुए संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का उपयोग करते हैं। अपने पात्रों के द्वारा वह उस समय के लोगों की सोच, उनकी जीवन शैली को भी सफलता से उकेर पाते हैं। क्रांति की बातों से जहां वह पाठकों की भुजाएं फड़का पाने में सफल रहे हैं तो वहीं प्रबोध और कुमुद के संवादों के जरिए आंखें नम करने काम काम भी उन्होंने बखूबी किया है। मात्र दो-तीन जगह हुईं हल्की-सी त्रुटियों और दो-एक जगह कुछ ‘फिल्मी’ होते दृश्यों को छोड़ दिया जाए तो यह उपन्यास न सिर्फ एक बैठक में पढ़ने लायक है बल्कि अपने अंत में यह अपने अगले कई भागों के लिए संभावनाएं भी छोड़ जाता है।
दृष्टि प्रकाशन से आई इस पुस्तक के आरंभ में सत्य ने इस कहानी को लिखने के लिए की गई अपनी रिसर्च का खुल कर हवाला दिया है। वह अगर नहीं भी बताते तो यह उपन्यास उनकी इस रिसर्च और डूब कर की गई मेहनत की गवाही खुद ही देता। अपने लेखकीय में सत्य लिखते हैं ‘मुझे यह अनुभूति हुई कि यह कहानी कही ही जानी चाहिए। इसे न कहना इतिहास के साथ तथा वीरपथ के भागियों के साथ अन्याय होगा।’
(नोट-इस समीक्षा का संपादित संस्करण दैनिक समाचारपत्र ‘प्रभात खबर’ में 5 मार्च, 2023 को प्रकाशित हुआ है।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)