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Home बुक-रिव्यू

बुक-रिव्यू : ज़िद, जज़्बे और जुनून की कहानी

Deepak Dua by Deepak Dua
2024/07/07
in बुक-रिव्यू
0
बुक-रिव्यू : ज़िद, जज़्बे और जुनून की कहानी
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-दीपक दुआ…

अभिनेता मनोज वाजपेयी के फिल्मी सफर और उनकी निजी जिंदगी के बारे में इतनी जगह इतना कुछ लिखा और बोला गया है कि उन पर आई किसी किताब पर यह सोच कर शक किया जा सकता है कि आखिर उसमें नया या अनोखा क्या होगा। लेकिन जब आप इस किताब के पन्ने पलटते हैं तो बार-बार हैरान होते हैं, चौंकते हैं, समझते हैं उस अभिनेता को, उसकी सोच को जिसे आप पर्दे पर देखना पसंद करते हैं। मनोज वाजपेयी के घर, परिवार, फिल्मों, करीबियों आदि के जरिए उनके जीवन को टटोलती इस किताब ‘मनोज वाजपेयी-कुछ पाने की ज़िद’ को पढ़ना किसी चलचित्र को देखने जैसा ही अनुभव देता है।

मनोज वाजपेयी की जीवनगाथा बताती यह किताब इस मायने में अनोखी है कि इसके लेखक पीयूष पांडे ने इसे लिखने के लिए मनोज के बारे में उपलब्ध ढेरों जानकारी, लेख, इंटरव्यू आदि पढ़ने तथा उनसे जुड़े बहुत सारे लोगों से मिलने, बातें करने व उनका पक्ष जानने के बाद पूरे तथ्यात्मक ढंग से इसे लिखा है। पीयूष वरिष्ठ पत्रकार हैं सो पत्रकारिता के अपने लंबे अनुभव का गहराई से इस्तेमाल करते हुए वह मनोज के बारे में हर स्रोत से जानकारी इक्ट्ठा करते हुए आगे बढ़ते हैं। किताब बताती है कि बिहार के पूर्वी चंपारण में जन्मे मनोज के परिवार के लोग कभी महात्मा गांधी के नील-सत्याग्रह में शामिल रहे। मनोज के पिता खुद कभी एक्टर बनना चाहते थे जिसके लिए वह पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट तक भी जा पहुंचे थे। मनोज के बचपन से जुड़ी ढेरों बातें, उनकी पढ़ाई, गांव, घर, परिवार, पढ़ाई के बहाने से दिल्ली आने, थिएटर से जुड़ने, दिल्ली में आर्थिक तंगी झेलने और बार-बार के प्रयास के बावजूद नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में कभी दाखिला न हो पाने, पहली मोहब्बत, शादी, अलगाव, फिल्मों की तरफ जाना, टेलीविजन पर आना, मुंबई का संघर्ष, दोस्ती-दुश्मनी, फिल्मों में पैर जमाने, पहचान हासिल करने, पुरस्कार पाने, फिर से शादी करने जैसी मनोज से जुड़ी ढेरों जानकारियां यह किताब कभी किस्सागोई तो कभी समाचारों की शक्ल में सामने लाती है। कहीं यह किताब कहानीनुमा हो जाती है तो कहीं इंटरव्यू सरीखी और कभी किसी पत्रकार की रिपोर्ट जैसी। इसकी यही खूबी इसे एक अलग पहचान देती है।

पेंगुइन बुक्स से आई यह किताब सिर्फ मनोज वाजपेयी के ही बारे में नहीं बताती बल्कि यह उनके बहाने से उनके परिवार के सदस्यों, उनके गृहक्षेत्र, दिल्ली शहर, दिल्ली के रंगकर्मियों, मनोज के साथ काम कर चुके लोगों के बारे में भी खुल कर बात करती है। मनोज के समकालीन, उनसे वरिष्ठ या बाद में उनके दायरे में आए कलाकारों, निर्देशकों आदि के बारे में भी इसमें प्रकाश डाला गया है। किताब के आखिरी कुछ पन्नों में दिए गए ढेरों संदर्भों से इसमें आए तमाम तथ्यों व बातों की प्रामाणिकता की पुष्टि होती है। किताब की भाषा कहीं-कहीं थोड़ी बोझिल है और लगता है कि थोड़ी और कसावट इसे अधिक पैना बना सकती थी। लेकिन मनोज और उनके बरअक्स हिन्दी सिनेमा उद्योग के बारे में यह एक जरूरी किताब है जिसे पढ़ने के बाद उन कई सारी फिल्मों को भी खोज-खोज कर देखने का मन होता है, जिनका इस किताब में जिक्र है।

(नोट-इस बुक-रिव्यू का संपादित संस्करण राष्ट्रीय समाचार-पत्र ‘प्रभात खबर’ में 7 जुलाई, 2024 को प्रकाशित हुआ है।)

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

Tags: book reviewbook review manoj bajpayeemanoj bajpayeepenguin bookspiyush pande
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