-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
इतिहास बताता है कि 15 अगस्त, 1947 के दिन भारत को अंग्रेज़ों से मिली आज़ादी के बाद बाकी की सभी रियासतें तो भारतीय संघ में शामिल होने के लिए मान गई थीं लेकिन भारत की सबसे बड़ी रियासत हैदराबाद के निज़ाम, अंग्रेज़ों के समर्थक और उस समय दुनिया के सबसे अमीर आदमी मीर उस्मान अली खान अड़े हुए थे। वह हैदराबाद को पाकिस्तान की मदद से एक आज़ाद देश बनाना चाहते थे। उनकी रज़ाकार सेना का प्रमुख क़ासिम रिज़वी उन्हें इसके लिए लगातार भड़का रहा था। बाकी रियासतों से अलग हैदराबाद के साथ दिक्कत यह थी कि यहां का शासक मुस्लिम था मगर यहां की बहुसंख्य आबादी हिन्दू थी। इसलिए रज़ाकार वहां की हिन्दू रियाया पर जुल्म ढाने लगे ताकि या तो वे हैदराबाद छोड़ दें, मर जाएं या फिर इस्लाम अपना लें। लेकिन जल्द ही हैदराबाद के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग वर्गों के लोग इसका विरोध करने लगे जिनमें मुस्लिम भी थे। तब भारत के गृहमंत्री सरदार पटेल ने हैदराबाद रियासत के साथ हुए एक समझौते को दरकिनार करते हुए भारतीय सेना के दखल से 18 सितंबर, 1948 को हैदराबाद को भारत में शामिल किया। यह फिल्म ‘रज़ाकार’ (Razakar: The Silent Genocide Of Hyderabad) उस दौर के हालात, वहां की प्रजा पर हुए जुल्मों, उनके संघर्षों और ‘ऑपरेशन पोलो’ के बाद हैदराबाद के भारत में शामिल होने की कहानी दिखाती है-थोड़ी अतिरंजना के साथ, थोड़ी कल्पना के साथ।
‘रज़ाकार’ का शाब्दिक अर्थ होता है-मददगार, स्वयंसेवक। लेकिन ये लोग किसके मददगार थे? हैदराबाद में इस्लामी शासन स्थापित करने के लिए दूसरे धर्मों के लोगों पर अत्याचार करने के साथ-साथ ये लोग अपने धर्म के उन लोगों को भी निशाना बना रहे थे जो उनका विरोध करते थे। यह फिल्म मुख्य तौर पर रज़ाकारों द्वारा हिन्दुओं पर ढाए जा रहे अत्याचारों को दिखाती है। इस ‘दिखाने’ में वैसी अतिरंजना और नाटकीयता है जो दक्षिण भारतीय, विशेषकर तेलुगू फिल्मों का हिस्सा रही है। इन्हें देख कर किसी का भी दिल दहल सकता है, चुभन हो सकती है और मन में यह सवाल भी उठ सकता है कि देश के बीचोंबीच ऐसा हो रहा था और हमारे कर्णधार उसे होने भी दे रहे थे? और उसके बाद से लेकर अब तक क्यों हमें इस बारे में खुल कर बताया-पढ़ाया नहीं गया? क्यों हर बार इतिहास के पन्नों से धूल झाड़ने का काम सिनेमा को ही करना पड़ता है? इस फिल्म ‘रज़ाकार’ (Razakar) को देखिए तो पीड़ा होती है। यह भी लगता है कि इसका नाम ‘हैदराबाद फाइल्स’ होता तो शायद कुछ लोगों को बहुत ज़ोर से दर्द होता।
(रिव्यू-इतिहास के पन्नों से धूल झाड़ती ‘द कश्मीर फाइल्स’)
याटा सत्यनारायण की लिखी कहानी में हालांकि कई जगह सिरे खुले हुए हैं और इसका ताना-बाना भी थोड़ा कच्चा है लेकिन यह दर्शक को बांधे रखती है और तारीखों व स्थानों के वर्णन के साथ बताती है कि उस दौर में कब, कहां, क्या हो रहा था। रितेश रजवाड़ा ने हिन्दी में इसे अच्छे से ढाला है। याटा सत्यनारायण का निर्देशन कमोबेश सधा हुआ रहा है। उन्होंने दृश्य बनाने में मेहनत की है जो पर्दे पर झलकती है। तारीफ इस फिल्म के निर्माता गुडूर नारायण रेड्डी की भी होनी चाहिए जिन्होंने ऐसे विषय पर फिल्म बनाने की न सिर्फ हिम्मत दिखाई बल्कि उस पर भरपूर पैसा भी खर्च किया जिससे यह फिल्म भव्य और दर्शनीय बन पाई।
अभिनय लगभग सभी का बढ़िया है। सरदार पटेल बने तेज सप्रू हों या निज़ाम बने मकरंद देशपांडे, जंचते हैं। बाकी सभी ने भी भरपूर साथ निभाया है। लेकिन यह फिल्म राज अर्जुन की है। रज़ाकारों के अगुआ क़ासिम रिज़वी के किरदार को उन्होंने अपनी अदाकारी से जीवंत ही नहीं किया बल्कि बहुत ऊंचे मकाम पर पहुंचाया है। अलग-अलग माहौल में अलग-अलग भावों के ज़रिए राज अर्जुन अपने अभिनय की गहराई से परिचित कराते हैं। (प्रसंगवश-कभी फुर्सत और जिज्ञासा हो तो क़ासिम रिज़वी के बारे में खोज कर पढ़ें, पता चलेगा कि क्यों वह हमारे इतिहास का खलनायक था और कौन लोग आज भी उसकी विरासत संभाले बैठे हैं।) कुछ गीत बढ़िया हैं। एक्शन नाटकीयतापूर्ण है। स्पेशल इफेक्ट्स कहीं बढ़िया तो कहीं साधारण हैं।
यह फिल्म (Razakar) खत्म होती है तो एक गाने में उस दौर के उन बहुत सारे वीरों का ज़िक्र आता है जो उस समय रज़ाकारों के खिलाफ और भारत के लिए लड़ रहे थे। इन नामों को सुन कर शर्म महसूस होती है कि क्यों इनमें से एक भी नाम से हम परिचित नहीं हैं? क्यों इनके बारे में हमें कभी पढ़ाया ही नहीं गया? किसकी साज़िश रही होगी यह?
महीना भर पहले तेलुगू में रिलीज़ होकर अब यह फिल्म (Razakar) हिन्दी में भी आई है। हिन्दी वालों को इसके दक्षिण-भारतीय स्वाद से एतराज़ नहीं होना चाहिए। सच और तथ्य जिस भी रूप में आएं, स्वीकारे जाने चाहिएं।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-26 April, 2024 in theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
रजाकार का बहुत सुंदर रिव्यू l झांसी में लगी तो अवश्य देखूंगा ।
धन्यवाद
बहुत बढ़िया विश्लेषण दीपक जी 👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻
धन्यवाद
Wah ji wah👏👏👏👏
धन्यवाद
हमेशा की तरह लाजवाब समीक्षा। 👌👌
और ये हैदराबाद फाइल्स वाली बात मेरे जहन में भी आई थी 😅
धन्यवाद
आपका रिव्यू फिल्म के बारे में बहुत स्पष्टता देता है और फिल्म को देखने की उत्सुकता भी जागता है। धन्यवाद।
सुबोध शर्मा
धन्यवाद भाई साहब
अब सिनेमा इतिहास की कड़ियां खोलने में लगा है ये जान कर आत्म संतुष्टि हो रही है। बहुत सारे अकीर्तित नायक भरे पड़े हैं इतिहास के पन्नों में जिनका जिक्र हमारी किताबों में नहीं है। यदि वो नाम सिनेमा के माध्यम से जनता के सम्मुख प्रकाशित हो रहा है तो इसका श्रेय सिनेमा जगत को अवश्य मिलना चाहिए 👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👍🏻👍🏻👍🏻👍🏻👍🏻👍🏻👍🏻