-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
साल 2013 की मुंबई का माहिम जंक्शन रेलवे स्टेशन। यहां एक सुनसान कोने में स्थित पब्लिक टॉयलेट ‘गे’ यानी समलैंगिक लोगों का मिलन स्थल है। एक रात इस टॉयलेट में एक ‘गे’ का खून हो जाता है। मरने वाले की बाजू पर लिपस्टिक से एक नाम ‘दिनेश’ लिखा है। इससे पहले कि पुलिस कुछ कर पाए, दिनेश का भी खून हो जाता है। वहां भी एक नाम मिलता है और कत्ल होने व नाम मिलने का यह सिलसिला चलने लगता है। कौन कर रहा है यह सब? क्या मकसद हो सकता है उसका? क्या उसे ‘गे’ लोगों से नफरत है? या फिर यह किसी ‘गे’ का ही काम है?
पत्रकार-लेखक जैरी पिंटो के चर्चित उपन्यास ‘मर्डर इन माहिम’ पर इसी नाम से बन कर जियो सिनेमा पर आई आठ एपिसोड की यह वेब सीरिज़ ऊपर से भले ही एक मर्डर-मिस्ट्री या कोई थ्रिलर लग रही हो लेकिन अंदर से यह एक सोशल ड्रामा है जो दर्शकों को समलैंगिक, ट्रांसजेंडर आदि लोगों (जिन्हें ‘एलजीबीटीक्यू’ समुदाय कहा जाता है), की उस दुनिया में ले जाती है जिसके भीतर झांकना तो दूर, जिनके बारे में बात करना तक आम लोग वर्जित समझते हैं।
कहानी शुरू होती है तो लगता है कि ‘गे’ लोगों पर आमतौर पर बनने वाली दूसरी कहानियों की तरह इसमें भी या तो जुगुप्सा होगी या फिर सतही बातें। इन लोगों को दूसरों द्वारा दुत्कारे जाने, ‘गुड़’ या ‘मीठा’ बुलाए जाने, इन्हें ‘क्रिमिनल’ समझे जाने, इन्हें या इनके द्वारा छले जाने, लूटे जाने जैसी वे बातें होंगी जो इस किस्म के विषयों के इर्दगिर्द हम देखते आए हैं। ये बातें इसमें हैं भी, लेकिन बहुत जल्द कहानी अपनी एक अलग राह पकड़ती है और दर्शकों को यह अहसास कराने लगती है कि ‘गे’ लोगों की दुनिया और यौन प्राथमिकताएं भले ही अलग हों लेकिन ये भी उतने ही इंसान हैं जितने हम, आप या बाकी सब। अंत आते-आते यह कहानी हमें इन लोगों के करीब ले जाती है, इनके बारे में गंभीरता से सोचने को प्रेरित करती है, बताती है कि इनके वजूद को स्वीकारने से कोई पहाड़ नहीं टूटेगा, कोई तूफान नहीं आएगा। यहां आकर यह कहानी अपने मकसद में कामयाब हो जाती है।
मुस्तफा नीमचवाला और उदय सिंह पवार ने स्क्रिप्ट की ऊंच-नीच को कमोबेश संतुलित बनाए रखा है। साफ लगता है कि इसे बनाने वालों का ज़ोर इसके ज़रिए सनसनी पैदा करना नहीं बल्कि ‘गे’ समुदाय के प्रति दर्शकों के भीतर सोए अहसास को जगाना है। हालांकि कुछ जगह सीन लंबे खिंचे हैं और दो-एक जगह भारी तार्किक भूलें भी हुई हैं लेकिन कहानी की रफ्तार में वे आसानी से पकड़ में नहीं आतीं। संवाद कई जगह काफी अच्छे हैं। बानगी देखिए-‘अगर कानून सोचेगा कि यह जुर्म है और मजहब सोचेगा कि गुनाह, तो लोग कुछ और कैसे सोचेंगे…?’ और ‘यह अपना मुंबई एक जेल है। इधर किसी ने सपना देखा न, तो फंस गया इसमें…!’
राज आचार्य ने निर्देशक के तौर पर सधा हुआ काम किया है। 2013 का समय, जब आर्टिकल 377 के तहत समलैंगिकता अपराध थी (2018 में इसे निरस्त कर दिया गया), उस दौर को वे पर्दे पर बखूबी रचते हैं। कलाकारों से भी उन्होंने बढ़िया काम निकलवाया है। पुलिस इंस्पैक्टर बने विजय राज़ को देख कर लगता है कि इस काबिल अभिनेता को अब जाकर उम्दा किरदार मिलने लगे हैं। उनके पत्रकार दोस्त बने आशुतोष राणा का काम भी प्रभावी रहा है लेकिन आमने-सामने के सीन में विजय उन पर भारी पड़े। शिवानी रघुवंशी को दमदार रोल मिला और उन्होंने उसे दमदार ढंग से निभाया भी। शिवाजी साटम, दिव्या जगदाले, स्मिता तांबे, राजेश खट्टर, आशुतोष गायकवाड़, रोहन वर्मा, उमेश जगताप, अनिल जॉर्ज, सुरेंद्र राजन, सोनल झा, सोनिया बालानी जैसे सभी कलाकारों का काम दर्शनीय रहा।
मर्डर मिस्ट्री के साथ-साथ ‘इन’ लोगों के प्रति अहसास जगाने का काम करती इस सीरिज़ को देखा जाना चाहिए। यह कोरा मनोरंजन ही नहीं देती, कुछ कहती भी है।
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Release Date-10 May, 2024 on Jio Cinema
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
विजय राज को अच्छा निर्देशक और रौल मिल जाए तो बहुत संभावनाएं हैं उनमें। वैसे तो ये विषय सुहाता नहीं परंतु आपने तारीफ की है तो देखना बनता है।