-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
1990 में कश्मीर घाटी से भगा दिए गए एक कश्मीरी पंडित का पोता अपने दादा की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए तीस साल बाद लौट कर आया है-अपने दादा की अस्थियों के साथ। उसके दादा के चार दोस्त भी वहां हैं। दिल्ली में रह रहे पोते को कश्मीर के बारे में ‘सब’ पता है। लेकिन यहां आकर उसे वह सच पता चलता है जो कभी सामने नहीं आया, या आने ही नहीं दिया गया। उसके साथ-साथ यह फिल्म हमें भी वह सच दिखाने आई है।
अपनी पिछली फिल्म ‘द ताशकंद फाइल्स’ की तरह लेखक-निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री ने इस बार भी कहानी कहने का वही पुराना तरीका चुना है जिसमें कुछ लोग बैठ कर अपनी-अपनी बातों और तथ्यों के ज़रिए अतीत के पन्ने पलट रहे हैं और इन पन्नों पर लिखी इबारतों से उस दौर का सच सामने आ रहा है। लेकिन इस बार विवेक (और सौरभ एम. पांडेय) का लेखन पहले से काफी ज्यादा मैच्योर और संतुलित है। शायद इसलिए भी कि कश्मीरी पंडितों के नरसंहार और विस्थापन का दौर बहुत ज़्यादा पुराना नहीं है और उससे जुड़े लगभग तमाम तथ्य दस्तावेजों में मौजूद हैं। लेकिन फिर यह हैरानी भी होती है कि महज 32 साल पुराने ये तथ्य अब तक सामने क्यों नहीं आए? आए तो उन पर बात क्यों नहीं हुई? हुई तो कोई तूफान क्यों नहीं उठा? यह फिल्म वही तूफान उठाने आई है।
कश्मीरी विस्थापित दादा और दिल्ली में पढ़ रहे पोते को रूपक की तरह इस्तेमाल करते हुए फिल्मकार असल में हमें पुरानी और नई पीढ़ी के सच से भी रूबरू कराते हैं। फिल्म सवाल उठाती है कि क्या पुरानी पीढ़ी ने अपनी नस्लों को सच बताने से परहेज़ किया? और क्या नई नस्लों ने सच जानने की बजाय खुद को उसी धारा का हिस्सा बन जाने दिया जो उनके अपने अतीत पर धूल डाल रही थी? यह फिल्म उसी धूल को हटाने आई है।
बतौर निर्देशक विवेक हमें नब्बे के दशक और आज के दौर की सच्चाइयों से वाकिफ कराते हैं। तब, जब बहुत कुछ हो रहा था लेकिन ऊंची कुर्सियों पर बैठे लोग कुछ नहीं कर पा रहे थे। अब, जब बहुत कुछ होना चाहता है लेकिन कुछ लोग हैं जिन्हें यह अखर रहा है। कौन थे वे? कौन हैं वे? फिल्म विस्तार से न सिर्फ उन्हें दिखाती है बल्कि उनकी उस विचारधारा से भी परिचित कराती है जिसने हमेशा भारत को तोड़ने का प्रयास किया। यह फिल्म उन्हें बेनकाब करने आई है।
फिल्म में ढेरों ऐसे दृश्य हैं जो किसी भी इंसान को विचलित कर सकते हैं। फिल्म में ऐसे अनेक संवाद हैं जो मारक हैं। यह फिल्म किसी भी पक्ष को नहीं बख्शती। राजनेताओं, पुलिस, मीडिया, यह हर किसी को कटघरे में खड़ा करती है। यह कश्मीर को ‘जन्नत’ से ‘समस्या’ में बदलने वालों से सवाल पूछती है। यह फिल्म उन्हें गुनहगार ठहराने आई है।
हालांकि फिल्म में तकनीकी खामियां भी हैं। इसकी 170 मिनट की लंबाई अखरती है। बहुत सारे सीन गैरज़रूरी तौर पर लंबे लगते हैं। कुछ जगह तर्क भी साथ छोड़ता है। कई जगह सीन हल्के भी रहे हैं। फिल्म में कश्मीरी संवादों के समय पर्दे पर अंग्रेज़ी की बजाय हिन्दी में सबटाइटिल होते तो असर गहरा हो सकता था। 1990 वाले हालात आखिर हुए ही क्यों, इस पर और ज़्यादा तीखी व कड़वी टिप्पणियां होनी चाहिए थीं। लंबे-लंबे संवादों और कहानी का धीमापन भी इसकी राह में आता है। मगर इतिहास की क्लास ने तो हर किसी को बोर ही किया है न। यह फिल्म वही इतिहास सुनाने आई है।
तमाम कलाकारों का अभिनय ठीक रहा है। हालांकि ज़्यादातर समय ये सब लोग औसत ही रहे मगर हर किसी को फिल्म में कम से कम एक बार अपना दम दिखाने का मौका ज़रूर मिला और उस समय कोई नहीं चूका। मिथुन चक्रवर्ती, अनुपम खेर, अतुल श्रीवास्तव, प्रकाश बेलावड़े, दर्शन कुमार, पल्लवी जोशी, चिन्मय मंडलेकर, पुनीत इस्सर, भाषा सुंबली, मृणाल कुलकर्णी आदि अपने अभिनय से फिल्म को विश्वसनीय बनाते हैं। गाने नहीं हैं, ज़रूरत भी नहीं थी। बैकग्राउंड म्यूज़िक फिल्म का प्रभाव बढ़ाता है। कैमरा और लोकेशन इसे असरदार बनाते हैं। कैमरा का ज़्यादा हिलना कई बार बहुत चुभता है। सच तो यह है कि यह पूरी फिल्म ही चुभती है। यही इसकी कामयाबी है। यह फिल्म उस इंजेक्शन की तरह है जो किसी की नस में धीरे-धीरे चुभोया जाता है ताकि उसे भरपूर दर्द हो। यह फिल्म मरहम नहीं लगाती, यह उसी दर्द को जगाने आई है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-11 March, 2022
(अपील-सिनेमाघरों में फिल्म देखते समय अपने मोबाइल की आवाज़ या रोशनी से दूसरों को डिस्टर्ब न करें।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
यह फिल्म हिंदूओं को तो जरूर ही देखनी चाहिए। वैसे मैं कभी ऐसा नहीं कहती लेकिन हम से ही जो अत्यंत आधुनिकता से लैस हैं, वो यह भी कह सकते हैं कि यह फिल्म गैर जरूरी है. ऐसी फिल्में बननी ही नहीं चाहिए देश की एकता प्रभावित होगी वगैरा वगैरा..जो इतिहास बरसों से छुपा था उसे कम से कम सामने तो आना ही चाहिए और लोगों को समझना भी होगा तभी इसकी सार्थकता भी होगी।
धन्यवाद…
फिल्म इतनी सफल है कि तटस्थ समीक्षक को भी भावनाओं में बहा ले गई।
नमन…
इतिहास बोर करता है परंतु इतिहास में रुचि रखने वालों के लिए टॉनिक का काम भी करता है।
हमेशा की तरह बेहतरीन समीक्षा। देखते हैं कब देख पाते हैं, मथुरा में अभी होली की धूम है पर थेटर में भी जल्द ही धूम मचाते हैं 😍
आभार…
“यह पूरी फिल्म ही चुभती है। यही इसकी कामयाबी है।”
——————————————————————–
लेखक-निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री जैसी शख्सियत धन्य हैं, जो इतिहास के दबे पन्नों को फिर से पलटने का सहास रखते हैं। आपका रिव्यू भी हर बार की तरह एकदम सुदृढ़ है, मैं तो कहना चाहूंगा कि यदि दर्शक रिव्यू पढ़कर फिल्म को देखने जाएं तो फिल्म को समझने में उन्हें कहीं कठिनाई नहीं होगी। आपके रिव्यू को पढ़कर फिल्म देखने की लालसा बढ़ जाती है। रिव्यू के लिए बधाई।
धन्यवाद…
सर,
अभी तक बहुत सी समीक्षा पढ़ी,। लेकिन सब बायस्ड लगी, बायस्ड इस मामले में कि मूवी को बेहतरीन और अवश्य देखने लायक बताने के लिए एकतरफा समीक्षा की गई है, केवल और केवल बढ़िया ही बताया गया है, यही कहा गया कि सच देखना है तो जरूर देखिए।
लेकिन, हर पहलू, हरेक आयाम, हरेक पक्ष को ध्यान में रखते हुएसधी और संतुलित समीक्षा जो किसी भी समीक्षक की समीक्षा का सार होना चाहिए, वह इस समीक्षा में भरपूर दिखा है।
शायद यही बात आपको औरों से अलग खड़ा करती है कि एक इंसान होने के नाते अलग से और एक समीक्षक होने के नाते अलग से आपने केवल भावनाओं के ही ज्वार में बहे बिना इसे अपने अलहदा नजरिए से पेश किया।
साधुवाद एवं धन्यवाद आपको🙏
शुक्रिया…
बेहतरीन समीक्षा!
उम्दा!!
शब्द और तथ्यों में इतनी तारतम्यता है कि यह पाठक को अपनी ओर बहाए लिये जाता है!
आभार…
लगातार उत्तम फ़िल्म-समीक्षायें देने वाले फ़िल्म समीक्षक की तारीफ़ करने के लिए हर बार नए शब्द ढूंढना अगर कभी मुश्किल लगे तो फिर,
***** देना ज़्यादा उत्तम और सरल लगता है ! 😊
👌👌👌👌👌
आभार… नमन…
Kashmir Files ka her drishya bahut bhavuk kerne wala hai. Deepak ji ke Film Review ke lambe. anubhav ka kamaal hai ki hum bhi ise dekhe bina na reh paye. Deepak ji ne nishpaksh roop se film ke her pehlu ko saamne rakha hai…..
धन्यवाद…