-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
फिल्म का आखिरी सीन देखिए। गुंडागर्दी छोड़ कर फुटबॉल खेलने विदेश जा रहे झोंपड़पट्टी के लड़के की पैंट में छुपे कटर से मैटल डिटेक्टर में बीप होती है। कटर फेंकने के बाद बीप बंद हो जाती है और उसे अंदर जाने दिया जाता है। पर्दे पर लड़का रोता है। इधर आपकी आंखें नम होती हैं। मन होता है कि काश कोई बुरी आदतों और गलत रास्तों का भी डिटेक्टर हो हमारे समाज में, जो भटकने से पहले नई पीढ़ी को चेता दे, बचा ले।
नागपुर की एक झोंपड़पट्टी। गंदी-तंग गलियां, छोटे-छोटे घर और आवारा-बदमाश बच्चे। कोयले की चोरी से लेकर मोबाइल की छीना-झपटी करने वाले, देसी शराब से लेकर सोल्यूशन सूंघ कर मदहोश रहने वाले इन बच्चों की ज़िंदगी की न तो कोई दशा है और न ही दिशा। एक दिन इन्हें खेलते देख प्रोफेसर विजय बोराड़े को इनमें भविष्य के खिलाड़ी नजर आने लगते हैं। उनके प्रोत्साहन से ये बच्चे न सिर्फ अच्छा खेलते हैं बल्कि सुधरने भी लगते हैं।
झुग्गी-झोंपड़ी में रहने वाले बच्चों के लिए फुटबॉल क्लब बनाने वाले नागपुर के विजय बरसे के जीवन से प्रेरित इस फिल्म को उन नागराज मंजुले ने लिखा और बनाया है जिन्हें हम मराठी की ‘सैराट’ से जानते हैं। मंजुले का सिनेमा इस तरह की पृष्ठभूमि वाली कहानियों को गहराई से कहने और हाशिये पर बैठे या बिठा दिए गए किरदारों के जीवन में बारीकी से झांकने का काम करता आया है। इस फिल्म में भी उन्होंने कोई जल्दी न दिखाते हुए बड़ी ही तसल्ली से यह काम किया है। झुग्गी बस्ती के रोज़मर्रा के जीवन को वह बहुत आराम से, फैला कर, खंगाल कर दिखाते हैं। वहां के बच्चों, किशोरों की आदतों और तौर-तरीकों में वह झांकते हैं तो पूरी झलक दिखाए बिना नहीं निकलते। बाद में उन बच्चों को खेलने के लिए विदेश भेजने की प्रक्रिया को भी वह पूरा विस्तार देते हैं। मंजुले का यह प्रयास इस फिल्म को एक ऐसा यथार्थ रूप देता है जो कम से कम हिन्दी सिनेमा में तो दुलर्भ हो चुका है। लेकिन उनका यही प्रयास, उनकी यही शैली इस फिल्म की गति और प्रगति, दोनों के आड़े आकर इसे नुकसान भी पहुंचाती है।
अपने कलेवर से यह फिल्म ‘चक दे इंडिया’ सरीखी भले लगती हो लेकिन असल में यह ‘गली बॉय’ जैसी है। वहां झोंपड़पट्टी के एक लड़के के रैप गाने की कहानी थी तो यहां पूरी टीम के फुटबॉल खेलने की, जिसे लोग टीम नहीं झुंड कहते हैं। विजय सर की सोहबत में ये लोग तदबीर से अपनी उस बिगड़ी हुई तकदीर को संवारने चले हैं जो इन पर कभी मेहरबान नहीं रही। लेकिन दिक्कत यह है कि मंजुले इस फिल्म को तरतीब से फैला ही नहीं सके। शुक्र इस बात पर मना सकते हैं कि उन्होंने इसे तरकीब से समेटा ज़रूर है।
कहीं डॉक्यूमैंटरी तो कहीं डॉक्यू-ड्रामा लगने वाली तकरीबन तीन घंटे लंबी इस फिल्म को देखते हुए साफ लगता है कि मंजुले बाज़ार के तय नियम-कायदों पर चलने वाले फिल्मकार नहीं हैं। वह चाहते तो इस में बड़ी ही आसानी से चटपटे मसाले, आइटम नंबर, एक्शन, सैक्स आदि डाल सकते थे। लेकिन उन्होंने अपेक्षाकृत सूखा रास्ता चुना और फिल्म को बोरियत के वीराने में ले जाने से भी परहेज नहीं किया। आप चाहें तो उनके इस दुस्साहस के लिए उन्हें शाबाशी दे सकते हैं। फिल्म के ढेरों गैरज़रूरी सीन और कई सारे सीक्वेंस का अनावश्यक विस्तार असल में किसी फिल्मकार की उस कमज़ोरी की तरफ भी इशारा करता है जिसके चलते वह अपने फिल्माए गए दृश्यों से मोह नहीं त्याग पाता और खामियाजा दर्शकों को भुगतना पड़ता है।
अमिताभ बच्चन ने असरदार काम किया है। कमोबेश सभी कलाकारों ने उम्दा अदाकारी की, इतनी असरदार कि वह अभिनय नहीं, सच्चाई लगती है। यकीन नहीं होता कि कोई दो दर्जन कलाकारों की तो यह पहली फिल्म है। अमिताभ भट्टाचार्य के गीत फिल्म की टोन में रच-बस जाते हैं। अजय-अतुल के संगीत में भी धमक है, लेकिन वह झिंगाट जैसा कुछ नहीं दे पाए।
सिनेमाघरों में आई यह फिल्म अपनी यथार्थ लुक और वास्तविक किरदारों के अलावा अपने उन सीक्वेंस के लिए देखी जानी चाहिए जिनमें यह एक दीवार से बांट दिए गए इंडिया और भारत के पालों में झांकती है। यह थोड़ी बोरियत भरी ज़रूर है लेकिन ईमानदार पूरी है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-04 March, 2022
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
गलीबॉय तो हमने नहीं देखी। पर इसेजरूर देखेंगे 😍
Very nice drama and supper motivation for social. People will be change yourself.very very nice
आभार… धन्यवाद…
Interesting h
Social change movies jldi jldi ani chahiye
हमेशा की तरह ईमानदार और शानदार फ़िल्म समीक्षा के लिए बहुत बधाई।
धन्यवाद…