-दीपक दुआ…
पिछले दिनों जब अपन फिल्म ‘वाह ताज’ के पोस्टर लांच के लिए आगरा के फोर प्वाईंट शेरेटन होटल पहुंचे तो सबसे पहले सामना हुआ फिल्म की नायिका मंजरी फड़नीस से। करीब 12 साल पहले अरिंदम चौधरी की फिल्म ‘रोक सको तो रोक लो’ से अपने फिल्मी सफर की शुरूआत करने वाली मंजरी फड़नीस ने हिन्दी से ज्यादा दूसरी भाषाओं की फिल्में कीं। अब वह फिर से हिन्दी फिल्मों में सक्रिय हो चुकी हैं। पिछले साल वह कपिल शर्मा के साथ ‘किस किस को प्यार करूं’ में भी आईं। इवेंट के बाद मंजरी के साथ तसल्ली से बातें हुईं।
-‘वाह ताज’ के नाम से तो ऐसा लग रहा है कि आप लोग ताजमहल का प्रचार करने जा रहे हैं। असल में क्या कहना चाहती है यह फिल्म?
-यह फिल्म दरअसल हमारे देश के उन किसानों की बात करती है जिनकी कोई नहीं सुनना चाहता। हालांकि यह एक सेटायर है और हल्के-फुल्के तरीके से इसमें कहानी कही गई है लेकिन यह हमारे सिस्टम की कुछ कमियों की तरफ इशारा करती है। महाराष्ट्र का एक किसान क्यों एक दिन अपने परिवार के साथ आगरा आकर कहता है कि ताजमहल उसके पूर्वजों की जमीन पर बना है, यह आप इस फिल्म में देखेंगे?
-तो आप इसमें क्या किरदार निभा रही हैं और कहानी में उस किरदार की कितनी अहमियत है?
–श्रेयस तलपड़े किसान बने हैं और मैं उस किसान की पत्नी का रोल कर रही हूं जो एक बहुत ही मजबूत औरत है। वह हर कदम पर अपने पति का साथ देती है और उसके कंधे से कंधे मिला कर खड़ी रहती है। इस कहानी में यह एक बहुत ही अहम रोल है।
-हिन्दी फिल्मों से शुरूआत करने के बाद आप दूसरी भाषाओं की फिल्में करने लगीं। क्या पसंद का काम नहीं मिल रहा था या काम ही नहीं मिल रहा था?
-मैं यह तो नहीं कहूंगी कि काम नहीं मिल रहा था लेकिन उस काम में वह बात नहीं थी कि मैं उनमें अपने लिए रचनात्मक संतुष्टि तलाश पाती। ‘रोक सको तो रोक लो’ के बाद हालांकि ‘जाने तू या जाने ना’ में मुझे अवार्ड्स भी मिले मगर फिर भी बात नहीं बन पा रही थी और उधर मुझे दूसरी भाषाओं की फिल्म इंडस्ट्री से आॅफर्स आ रहे थे। वैसे भी मेरा मानना है कि एक कलाकार के लिए भाषा कभी बाधा नहीं होनी चाहिए, सो मुझे जहां अच्छे ऑफर मिले, मैं उस तरफ चली गई।
-आपने दक्षिण की चारों प्रमुख भाषाओं का सिनेमा किया। यह सफर कितना रोमांचक, आसान या मुश्किल रहा?
-आसान तो बिल्कुल नहीं रहा। आपने सही शब्द इस्तेमाल किया कि यह बहुत रोमांचक जरूर रहा। जब हम किसी दूसरी भाषा का सिनेमा करते हैं तो आपको सिर्फ वह भाषा ही नहीं सीखनी होती बल्कि उससे जुड़ी संस्कृति की जानकारी भी लेनी होती है। तो मैंने वह सब सीखा कि एक तमिल लड़की कैसी होती होगी, एक तेलुगू लड़की, एक कन्नड़, एक मलयालम लड़की कैसी होगी, वहां का माहौल, वहां की बातें, बहुत कुछ सीखना पड़ा और यह सफर सचमुच बहुत मुश्किलों से भरा रहा। लेकिन आज जब मैं पीछे मुड़ कर देखती हूं तो मुझे संतुष्टि मिलती है कि मैं कुछ अच्छा कर पाई।
-उन मुश्किल पलों में कभी सब कुछ छोड़छाड़ कर घर लौट जाने का मन नहीं हुआ?
-हर इंसान की जिंदगी में ऐसे पल आते हैं जब वह डाउन होता है। मेरे साथ भी ऐसा कई बार हुआ कि मैं जो चाहती थी, जैसे चाहती थी, वैसे नहीं हो पा रहा था। लेकिन भागने का ख्याल मेरे मन में नहीं आया। मुझे बस यह कसक होती थी कि मुझे खुद को साबित करने का मौका मिले और जब-जब मुझे मौका मिला, मैंने खूब मेहनत की और धीरे-धीरे अच्छा वक्त आता चला गया।
-क्या आपको लगता है कि संघर्ष का वह दौर अब खत्म हो चुका है?
-मेरे ख्याल से फिल्म इंडस्ट्री में स्ट्रगल कभी खत्म नहीं होता है। चाहे आप यहां एकदम नए हों या फिर आप सुपरस्टार हों, आपको अपनी पहचान बनाए रखने का संघर्ष तो करना ही पड़ता है।
-‘ग्रैंड मस्ती’ जैसी एडल्ट-कॉमेडी आपने क्या सोच कर ली थी?
-मुझे जब यह रोल सुनाया गया तो मुझे यह अच्छा लगा। यह ठीक है कि यह फिल्म एक अलग किस्म की कॉमेडी परोस रही थी लेकिन मेरा किरदार एक बहुत ही सीधी और भोली-भाली किस्म की पत्नी का था। हम कलाकारों को वैसे भी अलग-अलग फ्लेवर की फिल्में करनी पड़ती हैं तो… ठीक है, मुझे कोई शिकवा नहीं है यह फिल्म करके।
–‘वाह ताज’ के बाद आप किस फिल्म में नजर आएंगी?
-मेरी एक शॉर्ट फिल्म आने वाली है जिसे लेकर मैं काफी उत्साहित हूं। यह प्रीति अली के हमारा मूवीज प्रोडक्शन की है जिसका नाम है ‘ख्वामखाह’। इसके बाद मैं अरबाज खान के साथ ‘जीना इसी का नाम है’ में आऊंगी। एक फिल्म है ‘बा बा ब्लैक शीप’ जो एक कॉमेडी है। ये दोनों ही फिल्में लगभग पूरी हो चुकी हैं और इसी साल में आ सकती हैं। इसके डायरेक्टर विश्वास पंड्या हैं जिनके पिता ने राजेश खन्ना को लेकर कभी ‘नमक हराम’ बनाई थी।
(नोट-इस बातचीत के कुछ हिस्से ‘हरिभूमि’ में छप चुके हैं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)