-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
शादी से पहले अपनी वर्जिनिटी खो देने वाली लड़कियां। शहर में अकेले रहने वाली लड़कियां। छोटे कपड़े पहनने वाली लड़कियां। दोस्तों के साथ शराब पीने और नॉन-वैज चुटकुले सुनने-सुनाने वाली लड़कियां। रात को पार्टियों में जाने वाली लड़कियां।
पर क्या ये होती हैं ‘खराब’ लड़कियां? आसानी से बिस्तर पर जाने को तैयार लड़कियां? क्या हक नहीं होता इन्हें ‘न’ कहने का? और अगर ये राजी न हों तो क्या हक मिल जाता है लड़कों को, समाज को इन्हें दबाने का, कुचलने का, मार देने का?
यह फिल्म इसी बात को न सिर्फ कहती है बल्कि पूरी शिद्दत के साथ आपके मन में इस विचार को बिठाने में सफल भी होती है कि ‘खुले’ विचारों और ‘खुले’ आचरण वाली लड़कियां चरित्रहीन नहीं होती हैं। उनका अपना वजूद होता है, अपनी मर्जी, अपनी सोच भी, जिसे आपको स्वीकारना ही होगा। फिल्म में कहा भी गया है कि छोटे कपड़े पहनने से लड़कियों को रोका जाता है जबकि रोक तो उन लड़कों पर लगनी चाहिए जो लड़कियों को छोटे कपड़ों में देख कर उत्तेजित हो जाते हैं।
भारतीय समाज, चाहे वह गांवों का हो या शहरों का, लड़कियों के पहनावे, सोच, शौक और आचरण को लेकर जिस कदर तंग सोच रखता आया है और यह सोच जिस तरह से तालिबानी होती जा रही है, उस पर यह फिल्म खुल कर और बुलंद आवाज में बात करती है। एक हिन्दी फिल्म के लिए यह एक बड़ा दुस्साहस है और इसके लिए इसे लिखने-बनाने वाले बधाई और सलाम के हकदार हैं।
कहानी हालांकि वहीं पुरानी है कि जो लड़की आप पर इल्जाम लगाए उसी को चरित्रहीन साबित करने पर तुल जाओ। लेकिन यह फिल्म इस मायने में अलग है कि यह उन लड़कियों को पाक-साफ बताने से ज्यादा उनके वजूद और उनकी मर्जी के हक में जा खड़ी होती है।
ऐसी दूसरी फिल्मों की तरह यहां भी लड़का एक रसूखदार खानदान का है और लड़कियां एक आम परिवार की। ये आम लड़कियां हैं। ये डरती हैं, घबराती हैं, शर्माती हैं, रोती हैं। मगर इनके अंदर अपने अस्तित्व को बनाए रखने और खुद पर लगे झूठे इल्जामों को धोने का जज्बा है और अपने इस जज्बे की खातिर ये दुनिया के नंगे सवालों का सामना करने को भी तैयार हैं। पर ये रातोंरात बहादुरी का झंडा नहीं उठातीं, कोई जुलूस-मोर्चा नहीं निकालतीं। लड़का और उसके साथी मिल कर इन्हें डराते भी हैं लेकिन फिल्म इस मामले को बढ़ाने की बजाय बहुत जल्द कानून के दायरे की बातें करने लगती है और सच पूछिए तो यही बातें, यही कोर्टरूम ड्रामा ही इस फिल्म की असल जान भी है।
स्क्रिप्ट में हालांकि कुछ जगह झोल हैं लेकिन वे इतने हल्के हैं कि उन्हें अनदेखा किया जा सकता है। असल में इस फिल्म का कंटैंट इतना जानदार है कि आप बिना भटके लगातार इससे बंधे रहते हैं।
निर्देशक अनिरुद्ध रॉय चौधरी की यह पहली हिन्दी फिल्म है। बांग्ला में वह कई फिल्में बना चुके हैं। उनकी फिल्मों में एक अलग तरह की संवेदना देखी जाती रही है और यहां भी वह अपना टच छोड़ पाने में कामयाब हुए हैं।
तापसी पन्नू को इस किस्म के रोल में देखा जाना चौंकाता है। हिन्दी फिल्मकारों को समझ लेना चाहिए कि उनके बीच में ऐसी उम्दा अदाकारा मौजूद है। कीर्ति कुल्हारी और एंड्रिया तेरयांग भी अपने किरदारों के माफिक लगी हैं। एंड्रिया के किरदार के बहाने फिल्म अपने देश में उत्तर-पूर्व के लोगों, खासकर वहां की लड़कियों के प्रति दुराग्रह की बात भी असरकारी ढंग से करती है। वकील बने अमिताभ बच्चन और पीयूष मिश्रा का सामना दो दिग्गज अभिनेताओं की शानदार टक्कर दिखाता है। अंगद बेदी कुछ ठंडे से लगे। जज बने धृतिमान चटर्जी का काम सबसे ऊपर रहा।
गीत-संगीत फिल्म के मिजाज के अनुकूल है। फिल्म के अंत में तनवीर क्वासी की लिखी कविता अमिताभ की आवाज में माकूल लगती है।
फिल्म की पृष्ठभूमि दिल्ली की है और बिल्कुल सही है क्योंकि एक यही शहर है जहां जरा-से रसूख और जरा-सी लंबी गाड़ी वाला इंसान खुद को खुदा समझने लगता है और जहां लड़कियों का चरित्र उनके कपड़ों से आंका जाता है। जहां की सड़कें चौड़ी हैं मगर लोगों की सोच तंग।
अब बात फिल्म के नाम की। ‘पिंक’ को लड़कियों का रंग माना जाता है। छुईमुई, प्यारी, चुलबुली, गुड्डियों जैसी लड़कियां। लेकिन यहां यह ‘पिंक’ गुलाबी नहीं है। हिम्मत दिखाने, डटे रहने और हार न मानने का कोई रंग होता हो तो यह वही ‘पिंक’ है।
अपनी रेटिंग-4 स्टार
Release Date-16 September, 2016
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)