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Home फिल्म/वेब रिव्यू

रिव्यू-भट्टों के भट्ठे का ‘राज़’

Deepak Dua by Deepak Dua
2016/09/16
in फिल्म/वेब रिव्यू
0
रिव्यू-भट्टों के भट्ठे का ‘राज़’
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-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)

एक होता है ईंटों का भट्ठा। ईंटों के खांचे में कैसी भी मिट्टी पकाओ, बन कर आने वाली ईंट मजबूत ही लगती है। पर यह तो इस्तेमाल के बाद ही पता चलता है कि वह ईंट अंदर से कितनी खोखली है।

एक है भट्टों का भट्ठा। महेश, मुकेश, विशेष, विक्रम जैसे कई सारे भट्टों ने मिल कर इसे खोला हुआ है। इनके पास भी कई खांचे हैं। जब जैसी कहानी आती है, ये उसे उसके खांचे में डाल कर पका देते हैं। हॉरर के लिए इनके पास ‘राज़’ नामक खांचा है। इसी खांचे से निकली चौथी कड़ी है ‘राज़ रीबूट’।

अपने यहां की हॉरर फिल्मों में जब बीवी अपनी पति से कहती है कि उसे अपने घर में कुछ अजीब दिख या महसूस हो रहा है तो वह पति उसकी बात मानता क्यों नहीं है, यह आज तक अपने पल्ले नहीं पड़ा। और जब बात हद से बढ़ जाती है तो वही पति अपनी जान पर खेल जाता है, किसी चंगू-मंगू टाइप तांत्रिक, मांत्रिक, ओझा, संत, फकीर, पादरी, डॉक्टर वगैरह-वगैरह को भी पकड़ लाता है।

अरे यार, कब तक वही पुराने माल से पकाते रहोगे! कोई ठंडा, शांत, सुनसान, लगभग अजनबी शहर। पत्नी के शरीर में आ घुसी आत्मा। कोई तावीज, धागा, मंगलसूत्र किस्म की पवित्र मानी जाने वाली चीज। पत्नी की जान पर बन आना और पति का जान पर खेल कर ‘अपने प्यार की ताकत’ से उसे बचा लेना… उफ्फ… बहुत हो गया…!

कहानी की पृष्ठभूमि रोमानिया के ट्रांसिलवेनिया की है और ऐसा लगता है कि इस शानदार इमारतों के शहर में बस सौ-पचास लोग ही रहते हैं। इतनी वीरानगी तो रामसे वालों की ‘वीराना’ में भी नहीं थी भट्टों।

चलिए छोड़िए तर्कों की बातें क्योंकि आमतौर पर हॉरर फिल्में देखने वाले स्क्रिप्ट के लॉजिक्स पर नहीं बल्कि ’डर’ नाम के उस मसाले को देखने जाते हैं जो उन्हें डराए, दहलाए, चौंकाए और जिसे याद कर के उन्हें रोमांच हो। पर यहां तो वह भी नहीं है। पूरी फिल्म में मुश्किल से दो बार हल्के-से डरावने सीन आते हैं और वे भी अपने बैकग्राउंड म्यूजिक से ज्यादा डराते हैं। ऐसी फिल्मों में तो कैमरे के एंगल से भी जबर्दस्त खेल हो सकता है लेकिन इसकी तो कैमरागिरी भी रूखी है।

नायिका कृति खरबंदा साउथ की कई फिल्में कर के आई हैं और उनके काम में सहजता दिखती है। गौरव अरोड़ा रैंप-मॉडलिंग वाला काम करते दिखे। इमरान हाशमी भी साधारण रहे। संगीत उसी फ्लेवर का है जैसा भट्टों की फिल्मों में होता है। बतौर लेखक-निर्देशक विक्रम भट्ट की कल्पनाशक्ति अब जवाब दे चुकी है।

और हां, क्या अपना सैंसर बोर्ड हिन्दी फिल्म पास करने से पहले यह नहीं देखता कि इसमें अंग्रेजी के कितने संवाद हैं? थोड़ी और अंग्रेजी डाल कर इसे पूरी तरह इंगलिश में ही बना देते भट्टों। वैसे भी ‘रीबूट’ शब्द कितने हिन्दी वालों को समझ आएगा?

इस हफ्ते कोई कायदे की फिल्म देखनी है तो ‘पिंक’ देखिए। भट्टों के भट्ठे की ही ईंट पर सिर खपाना है तो आपकी मर्जी।

अपनी रेटिंग-डेढ़ स्टार

Release Date-16 September, 2016

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

Tags: emraan hashmikriti kharbandaraaj rebootraaz reboot reviewreview of raaz rebootvikram bhatt
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