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विद्या बालन ‘बेगम जान’ बनने से क्यों हिचक रही थीं…?

Deepak Dua by Deepak Dua
2017/04/08
in विविध
0
विद्या बालन ‘बेगम जान’ बनने से क्यों हिचक रही थीं…?
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-दीपक दुआ…

विद्या बालन निर्देशक श्रीजित मुखर्जी की फिल्म ‘बेगम जान’ में शीर्षक भूमिका निभाती नज़र आएंगी। श्रीजित ने अपनी ही एक बांग्ला फिल्म ‘राजकहिनी’ को हिन्दी में ‘बेगम जान’ नाम से बनाया है। हाल ही में विद्या, श्रीजित और महेश भट्ट ने दिल्ली आकर मीडिया के चुनिंदा लोगों को इस फिल्म के कुछ अंश दिखाए जिसके बाद इस फिल्म के विभिन्न पहलुओं पर गहन चर्चा हुई। उसी दौरान विद्या से हुई बातचीत के अंश सिलसिलेवार ढंग से प्रस्तुत हैं। मगर पहले जरा कहानी भी जान लें।

कहानी ‘बेगम जान’ की

1947 में बंटवारे से ठीक पहले का समय। भारत और पाकिस्तान के बीच बंटवारे की कंटीली तार बिछाई जानी है। लेकिन बीच में आ जाता है पंजाब की धरती पर बना बेगम जान का कोठा। उसे कोठा हटाने को कहा जाता है तो वह मना कर देती है। और जब बेगम जान के सरपरस्त राजा साहब उसकी मदद से इंकार कर देते हैं तो वह कहती है कि अब तो मैं अपने महल में ही मरूंगी, रानी की तरह। बेगम और उस घर में रहने वाली लड़कियां सरकारी अमले से भिड़ती हैं और इज्जत की मौत को गले लगाना स्वीकार करती हैं।

और अब सवाल-जवाब

-खबर है कि आप इस फिल्म को करने से हिचक रही थीं। क्यों?

-दरअसल मैं निजी तौर पर रीमेक में काम करने के लिए ज्यादा उत्साहित नहीं होती हूं। खासतौर पर अगर वह किसी क्लासिक फिल्म का रीमेक हो। इस फिल्म का जब ऑफर आया तब भी यही बात थी क्योंकि ‘राजकहिनी’ एक ऐसी फिल्म है जिसे क्लासिक माना जाता है और जब इस तरह की फिल्म को फिर से बनाया जाता है तो इम्तिहान काफी कड़ा हो जाता है।

-तो फिर कैसे आप इसे करने को राजी हुईं?

-कई बार आपके अंदर के कलाकार की भूख आपके अपने ही बनाए नियमों से ऊपर निकल जाती है। जब मैंने ‘राजकहिनी’ देखी तो मुझे लगा कि मुझे यह फिल्म करनी चाहिए क्योंकि बतौर एक कलाकार यह मुझे बहुत कुछ देने वाली है।

(‘बेगम जान’ से लौट रहे हैं ‘असली वाले’ महेश भट्ट)

-बेगम जान के किरदार की किस बात ने आपको सबसे ज्यादा प्रभावित किया?

– इस किरदार की यात्रा बड़ी ही उतार-चढ़ाव भरी है। कभी तो यह एकदम सख्त हो जाती है, कभी बिल्कुल ही ममतामयी हो जाती है। कभी मजाक करती है, कभी कड़वा बोलती है। जब राजा साहब आते हैं तो यह उनके सामने बिछ-सी जाती है और उनके जाने के बाद यह एकदम ही अलग रूप में आ जाती है। इसकी इसी खासियत ने ही मुझे इसकी तरफ सबसे ज्यादा आकर्षित किया था।

-‘राजकहिनी’ भी तो आपको ऑफर हुई थी?

-हां, उस समय मैं इसे नहीं कर पाई थी और मुझे खुशी है कि उसे जब हिन्दी में बनाने की बात आई तो श्रीजित मेरे पास वापस आए। और जिस तरह से इस फिल्म को हिन्दी में फिर से लिखा गया है इसे आप पूरी तरह से रीमेक भी नहीं कह सकते। मैं खुद को खुशकिस्मत समझती हूं कि मैं इस फिल्म का हिस्सा बन पाई और श्रीजित के साथ काम करने का मुझे अवसर मिला।

-आप इसे रीमेक क्यों नहीं कहना चाहतीं?

-यह रीमेक इसलिए नहीं है क्योंकि यह ‘राजकहिनी’ से ‘बेगम जान’ की ओर इसके निर्देशक श्रीजित की एक नई यात्रा को दिखाती है। उस फिल्म की कहानी जहां 1947 में खत्म हो जाती है जबकि यहां कहानी आज के समय में दिल्ली के क्नॉट प्लेस से शुरू होती है और फिर बेगम जान की तरफ जाती है। एक तरह से यह बेगम जान के समय और आज के समय की घटनाओं को आपस में जोड़ती है।

-लोकेशन के स्तर पर कितना बदलाव किया गया है इसमें?

-वह फिल्म भारत और पूर्वी पाकिस्तान के बॉर्डर को दिखाती है जो बंगाल की सीमा पर है जबकि इसमें कहानी को पंजाब में घटते हुए दिखाया गया है। गुरदास पुर का इलाका रखा गया है लेकिन एक रूपक के तौर पर श्रीजित बेगम जान के कोठे को भारत के तौर पर दिखाते हैं जिसमें अलग-अलग जगहों की लड़कियां हैं। पंजाब की लड़कियां हैं जिनमें से एक हिन्दू पंजाबी है और एक मुस्लिम पंजाबी। राजस्थान, गुजरात, यू.पी. हिमाचल, कश्मीर से लड़कियां हैं। खुद बेगम जान की पृष्ठभूमि उसे लखनऊ और बनारस से जोड़ती है।

-‘द डर्टी पिक्चर’ में भी आप बहुत सारे लोगों के सामने तन कर खड़ी होती हैं। कितना अलग था सिल्क की भूमिका से बेगम जान के किरदार को निभाना?

-मेरे लिए बेगम जान उन सभी किरदारों से अलग है जो मैंने अब तक निभाए हैं। मुझे हमेशा से उन औरतों के बारे में जानना, पढ़ना अच्छा लगता रहा है जो अपने लिए या दूसरों के लिए समाज से लड़ने की इच्छा रखती आई हैं। बेगम जान को अपने पेशे पर कोई शर्मिंदगी नहीं है और वह इतनी ताकतवर औरत है कि कुछ भी हो, वह उसे करना और करवाना जानती है। लेकिन जब राजा साहब उसका हाथ झटक देते हैं और वह अपने दम पर खड़ी होती है तो इस किरदार की असल ताकत सामने आती है। मुझे बेगम जान की इस ताकत को महसूस करना था।

-इस फिल्म में एक सीन है जिसमें आप कहती हैं कि हम तो गालियां भी मां-बहन के नाम पर देती हैं।

-हां, आप देखिए न कि तमाम अच्छी चीजें मर्दों के लिए हैं और जब गालियों की बात आती है तो मर्दों के लिए एक भी गाली नहीं है। तो यह जो नाइंसाफी है, यह आज से नहीं सदियों से होती चली आ रही है। मुझे तब बहुत खराब लगता है जब कोई औरतों को नीची नजर से देखता है या यह सोचता है कि औरतें मर्दों के बराबर नहीं हैं। औरतों के प्रति भेदभाव मुझे उद्वेलित कर देता है और शायद यही कारण है कि मैं इस किस्म के किरदारों को अपने करीब महसूस करती हूं और उन्हें अच्छे से निभा पाती हूं।

-इस रोल के लिए आपने कैसे खुद को तैयार किया? क्या आपने इतिहास की किताबें पढ़ीं?

-नहीं। श्रीजित मुखर्जी ही मेरी इतिहास, भूगोल और इमोशंस की किताब थे। मैंने इनसे ढेरों सवाल पूछ-पूछ कर इनका इतना दिमाग चाटा कि कई बार तो ये परेशान हो जाते थे। मुझे तो लगता है कि जितनी बड़ी स्क्रिप्ट इन्होंने फिल्म के लिए लिखी उससे कहीं ज्यादा बड़े जवाब इन्हें मेरे सवालों के देने पड़े।

(‘बेगम जान’ इतिहास को वर्तमान से जोड़ती है—श्रीजित मुखर्जी)

-आपको इतने अलग-अलग किरदारों में देखने के बाद लगता नहीं कि अब आपको कुछ मुश्किल लगता होगा। लेकिन क्या इस फिल्म को करते समय क्या कुछ ऐसा था जो आपको मुश्किल लगा?

-बहुत अच्छा लगता है यह सुन कर कि लोगों को ऐसा लगता है कि मेरे लिए कुछ मुश्किल नहीं है पर हर बार मुझे लगता है कि मैं नहीं कर सकती या नहीं कर पाऊंगी। जब पहली बार भट्ट साहब और श्रीजित मेरे पास यह फिल्म लेकर आए तो बतौर एक्टर मैं हां कहना चाहती थी लेकिन अंदर कहीं मैं हिचक रही थी, मुझे लग रहा था कि यह फिल्म बहुत कुछ मांग रही है मुझसे और क्या मैं इसे इतना दे पाऊंगी?

-क्या वजह थी इस हिचक की?

-असल में इतना एग्रेसिव किरदार मैंने अब तक नहीं निभाया था। मुझे दरअसल गुस्सा करना नहीं आता। मुझे किसी को भी गुस्सा करने में बहुत दिक्कत होती है। मुझे याद है कि ‘परिणीता’ में एक सीन था जहां मुझे अपने मामा जी को डांटना था और फिल्म के बाद विधु विनोद चोपड़ा जी का मुझे फोन आया कि पूरी फिल्म में तुमने इतना अच्छा काम किया लेकिन वो एक सीन है जो तुम नहीं कर पाईं। तो ‘बेगम जान’ में मेरे लिए सबसे बड़ा चैलेंज यही था और इसीलिए मैं बार-बार श्रीजित से बेगम जान के बारे में सवाल पूछती रहती थी ताकि मैं इस किरदार को ज्यादा से ज्यादा अपने अंदर ले सकूं और समझ सकूं कि क्या चीजें थीं, क्या घटनाएं थीं जिनकी वजह से उसके अंदर इतना गुस्सा है और वह जो है, किस वजह से है।

-क्या इस किस्म के किरदार लंबे समय तक अंदर मौजूद भी रहते हैं?

-हां, बिल्कुल। और यह काफी स्वाभाविक भी है। इसीलिए मैं अक्सर मुंबई से बाहर जाकर शूटिंग करना पसंद करती हूं क्योंकि तब आप यहां के माहौल से, यहां की आपाधापी से खुद को डिस्कनैक्ट करके उस किरदार और उस माहौल को ज्यादा गहराई से महसूस कर सकते हैं। जहां तक इस फिल्म और इस किरदार की बात है तो एक बार मेकअप करके सैट पर पहुंचने के बाद मैं खुद को बेगम जान की तरह देखने लगती थी और मुझे तो यह भी लगता है कि इस तरह की फिल्म करने के बाद कम से कम तीन महीने तक कुछ और नहीं करना चाहिए क्योंकि वह फीलिंग अंदर से जाती ही नहीं है।

(नोट-विद्या बालन से हुई मेरी इस बातचीत के अंश ‘एयर इंडिया’ की इन-फ्लाइट मैगज़ीन ‘शुभ यात्रा’ के अप्रैल, 2017 अंक व समाचार पत्र ‘हरिभूमि’ में 25 मार्च, 2017 को छप चुके हैं।)

(रिव्यू-न बेदम न बेजान फिर कहां फिसली ‘बेगम जान’)

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

Tags: begum jaanmahesh bhattraj kahinisrijit mukherjividya balan
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