-दीपक दुआ…
श्रीजित मुखर्जी बांग्ला फिल्मों के सफल निर्देशक हैं। अभिनय करने, गीत और कहानियां लिखने का भी उन्हें शौक है। बांग्ला में नौ फिल्में बना चुके हैं जिनमें से ज्यादातर ने ढेरों अवार्ड बटोरे हैं। अब वह अपनी ही बांग्ला फिल्म ‘राजकहिनी’ को हिन्दी में ‘बेगम जान’ के नाम से बना कर ला रहे हैं जिसमें विद्या बालन की शीर्षक भूमिका है। इस फिल्म से जुड़ी बातों के बारे में श्रीजित खुल कर बतियाते हैं-
क्या है कहानी
यह 1947 में बंटवारे से ठीक पहले के वक्त की कहानी है। भारत और पाकिस्तान के बीच बंटवारे तय हो चुका है। दोनों देशों के बीच रेड क्ल्फि रेखा खींची जानी है। पार्टिशन की कंटीली तार बिछाने का काम चल रहा है कि एक जगह पर बेगम जान का कोठा बीच में आ जाता है। बेगम जान को कोठा हटाने को कहा जाता है तो वह मना कर देती है। वह अपने सरपरस्त राजा साहब से मदद मांगती है और ज बवह उसकी मदद से इंकार कर देते हैं तो वह उस घर में रहने वाली लड़कियां सरकारी अमले से भिड़ जाती हैं और लड़ते-लड़ते मौत को गले लगाती हैं।
(‘बेगम जान’ से लौट रहे हैं ‘असली वाले’ महेश भट्ट)
कहानी की प्रेरणा
इस कहानी को कहने की प्रेरणा मुझे बंटवारे पर लिखी गई उन किताबों से मिली जिनमें मैंने पढ़ा कि किस तरह से बंटवारे की लाइन शहरों, गांवों, नदियों, पहाड़ों, खेतों के साथ-साथ घरों के अंदर से भी जा रही थी। यह जो ‘घरों के अंदर’ वाली लाइन थी इसने मुझे प्रभावित किया यह जानने को कि उन लोगों पर क्या बीती होगी। जब और रिसर्च किया तो पता चला कि कुछ घर तोड़ दिए गए, कुछ खाली करा लिए गए, कुछ सरकारी शब्दों में ‘गायब’ हो गए। इस चीज ने मुझे और ज्यादा हैरान किया कि घर कैसे गायब हो सकते हैं। तो मैंने यह कहानी बुनी जो पूरी तरह से काल्पनिक है कि एक घर है, उसके कुछ बाशिंदे हैं जो कोशिश करते हैं कि वे ‘गायब’ न होने पाए।
कोठा ही क्यों?
इस कहानी को कहने के लिए एक कोठे का चुनाव करने की वजह यह थी कि यह एक ऐसा घर है जहां कोई मर्द नहीं है और न ही यह कोई स्कूल, मठ या अनाथाश्रम जैसा कुलीन है जिसके लिए लोगों के मन में कोई हमदर्दी हो। एक कोठे को तो वैसे भी सभ्य समाज में अर्थहीन, गैरजरूरी मान लिया जाता है तो जब उसमें रहने वाली औरतें जो कि वैसे भी समाज के आखिरी हाशिये पर हैं, वे अपने अधिकार-क्षेत्र के लिए लड़ती हैं और वह भी राज्य की सत्ता से, तब क्या होता है, यह कहानी उसी को दिखाती है। हम दरअसल यह दिखाना चाहते थे कि बेगम जान की और इन औरतों की भी अपनी एक शख्सियत है। ये चाहे जो भी करती हों, आखिर हैं तो ये उसी समाज का ही हिस्सा न और अगर कोई जबरन इनके हिस्से को हथियाना चाहेगा तो यह चुप नहीं बैठेंगी।
‘राजकहिनी’ और ‘बेगम जान’
‘राजकहिनी’ भारत और पूर्वी पाकिस्तान के बॉर्डर को दिखाती है जो बंगाल की सीमा पर है जबकि ‘बेगम जान’ में कहानी को पंजाब में गुरदास पुर के इलाके में घटते हुए दिखाया गया है। हम इस कोठे को, जो बेगम जान का घर है, भारत के रूपक के तौर पर दर्शाना चाहते थे। इसीलिए आप इसमें देखेंगे कि अलग-अलग जगहों की लड़कियां इसमें हैं। पंजाब की तीन लड़कियां हैं जिनमें से एक हिन्दू पंजाबी है और एक मुस्लिम पंजाबी। राजस्थान, गुजरात, यू.पी. हिमाचल, कश्मीर से लड़कियां हैं। खुद बेगम जान की पृष्ठभूमि उसे लखनऊ और बनारस से जोड़ती है।
क्या है फर्क
भारत के पूर्वी हिस्से में जो पार्टिशन हुआ और पश्चिमी सरहद पर जो हुआ, वह एक-दूसरे से बिल्कुल अलग है। उसी तरह से इस फिल्म में जब हम पूर्वी बॉर्डर से उठ कर पंजाब में आए हैं तो इसके लिए हमें स्क्रिप्ट को पूरी तरह से बदल कर लिखना पड़ा और खुद मेरे लिए भी यह फिल्म ‘राजकहिनी’ के रीमेक की बजाय एक नई फिल्म थी जिसे मैं उस फिल्म से इस फिल्म तक की अपनी यात्रा के तौर पर देखता हूं। एक बड़ा फर्क यह भी है कि उस फिल्म की कहानी 1947 में खत्म हो जाती है जबकि यहां कहानी आज के समय में दिल्ली से शुरू होती है और फिर बेगम जान की तरफ जाती है। एक तरह से यह बेगम जान के समय और आज के समय की घटनाओं को आपस में एक गर्भनाल से जोड़ती है। यह जो नाता दो कालखंडों में दिखाया गया है वह काफी इस फिल्म का काफी मजबूत पक्ष है और साथ ही डिस्टर्ब भी करता है। ‘राजकहिनी’ जहां 2 घंटे 37 मिनट की थी वहीं यह फिल्म सिर्फ 2 घंटे 4 मिनट की है।
ऐतिहासिक संदर्भ भी
बहुत सारे ऐतिहासिक संदर्भ हैं। हमने न सिर्फ इस कोठे को भारत के रूपक के तौर पर दिखाया है बल्कि बेगम जान के किरदार को भारत के राजाओं और रानियों के रूपक के तौर भी दिखाया है। यह एक किस्म से बेगम जान की उस भावना को दिखाता है कि वह इस जगह की रानी है और उसके साथ वही व्यवहार होना चाहिए जो एक रानी के साथ होता है और इसीलिए वह कहती है कि मरूंगी तो अपने महल में रानी की तरह। मुझे लगता है कि लोग कई तरह से जीते हैं, जीना चाहते हैं लेकिन जब कोई यह तय कर ले वह मरेगा कैसे तो समझिए, उसने खुद को जान लिया।
विद्या बालन ही क्यों
‘राजकहिनी’ में केंद्रीय भूमिका में ऋतुपर्णा सेनगुप्ता थीं। उस फिल्म के कलाकारों में से कइयों ने इसमें काम करना चाहा लेकिन मेरे मन में पहले से ही साफ था कि यह रीमेक नहीं है बल्कि हम कहानी को फिर से और अलग तरह से कहने जा रहे हैं और मैंने खुद को भी उस डायरेक्टर से अलग करके देखना शुरू कर दिया था जिसने ‘राजकहिनी’ बनाई थी। इसीलिए मैंने उसमें से किसी को भी इस फिल्म में नहीं लिया। मुझे खुद भी रीमेक पसंद नही हैं। मुझे तो खुद को दोहराने से नफरत है। मेरे लिए यह एक नई कहानी, नए लोगों के साथ, नई पृष्ठभूमि पर बन रही थी। विद्या बालन एक ऐसी अभिनेत्री हैं जिनका नाम लेते ही मन में एक सशक्त औरत की छवि उभरती है। वह हमें इस रोल के लिए बिल्कुल सटीक लगीं। वह एक ऐसी एक्ट्रैस हैं जिन्होंने अपनी लुक के साथ इतने सारे एक्सपेरिमैंट किए हैं कि किसी भी डायरेक्टर के लिए यह सोचना बड़ा मुश्किल हो जाता है कि अब क्या नया किया जाए।
(विद्या बालन ‘बेगम जान’ बनने से क्यों हिचक रही थीं…?)
सीखा बहुत कुछ
मैं पांच साल दिल्ली के जे.एन.यू. में रहा हूं। तो उत्तर भारत के कल्चर से मैं वाकिफ हूं फिर भी इस फिल्म को करते हुए मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला। उत्तर भारत के बारे में मेरी समझ में बढ़ोतरी हुई और बहुत कुछ जानने को मिला। नसीरुद्दीन शाह जी, अमिताभ बच्चन जी जैसे लोगों के साथ काम करने का अवसर मिलना भी अपने-आप में बहुत बड़े सम्मान की बात रही मेरे लिए। मेरी पहली हिन्दी फिल्म है और आशा भोसले जी जैसी महान गायिका इसमें गा रही हैं तो मैं खुद को धन्य समझता हूं।
(रिव्यू-न बेदम न बेजान फिर कहां फिसली ‘बेगम जान’)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)