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Home बुक-रिव्यू

बुक रिव्यू-चुटीलेपन संग हॉरर का मज़ा ‘उफ़्फ़ कोलकाता’ में

Deepak Dua by Deepak Dua
2020/12/14
in बुक-रिव्यू
0
बुक रिव्यू-चुटीलेपन संग हॉरर का मज़ा ‘उफ़्फ़ कोलकाता’ में
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-दीपक दुआ…

नई वाली हिन्दी के इन दिनों आ रहे उपन्यासों में झांकें तो सत्य व्यास सरीखी कलम दूसरी नहीं मिलती। अपनी कहानियों को रोचकता से कहने और उस रोचकता को शुरू से अंत तक लगातार बनाए रखने में सत्य-या कोई दूसरा नहीं दिखता। उनके पहले उपन्यास ‘बनारस टॉकीज़’ और दूसरे ‘दिल्ली दरबार’ में चुटीलापन और रोचकता भरपूर थी। उनका यह पांचवा उपन्यास ‘उफ़्फ़ कोलकाता’ इन दोनों उपन्यासों सरीखा ही है।

लेकिन इस बार सत्य ने कहानी में चुटीलेपन और रोचकता के साथ-साथ हॉरर का मसाला भी डाला है जिसके चलते यह कुछ अलग ही मज़ा देता है। अपने पहले दो उपन्यासों की तरह ही इस बार भी उन्होंने इसे किसी फिल्म की स्क्रिप्ट सरीखे ढंग से लिखा है जिसे पढ़ते हुए आंखों के सामने दृश्य तैरने लगते हैं। यही कारण है कि जब उपन्यास में हॉरर का ज़िक्र होता है तो पढ़ने वाले को भी डर लगता है। यह डर ही इस उपन्यास को सफल बनाता है।

कोलकाता के करीब किसी यूनिवर्सिटी के हॉस्टल में रह रहे छात्रों की कारस्तानियों के बीच एक भूतनी के घुस आने की इस कहानी में वह सब है जो एक मज़ेदार हॉरर कहानी में होना चाहिए। बल्कि मैं तो यह कहूंगा कि किसी फिल्मकार को जल्द से जल्द इस पर फिल्म आदि बनाने की शुरूआत भी कर देनी चाहिए। सत्य ने इसे शायद लिखा भी यही सोच कर है और शायद इसीलिए उन्होंने इसे सीक्वेल की संभावना के साथ खत्म किया है।

मैंने पहले भी लिखा है कि भाषा पर सत्य व्यास की जैसी पकड़ है वैसी उनके समकालीन लेखकों में से शायद ही किसी के पास हो। कलिष्ट हिन्दी से लेकर उर्दू और स्थानीय बोली के शब्दों, उक्तियों का अद्भुत ढंग से इस्तेमाल करके वह अपने पाठक को ऐसा बांध लेते हैं कि उसे कहानी के मज़े के साथ-साथ भाषा-ज्ञान मुफ्त में मिलने लगता है। इस उपन्यास में बाकी सब तो ठीक है लेकिन कहीं-कहीं बेवजह घुसा हुआ कलिष्ट उर्दू का कोई शब्द अखरने लगता है। कहानी ने भी कहीं-कहीं तर्क छोड़ा है और कुछ एक जगह तथ्यात्मक भूलें भी हुई हैं। प्रकाशक हिन्द युग्म को उपन्यास लाने से पहले किसी पेशेवर पाठक की सेवाएं लेने पर विचार करना चाहिए। उपन्यास के नाम का भी इसकी कहानी के साथ कोई सीधा मेल नहीं दिखता। सत्य को शहरों के नामों पर उपन्यासों के नाम रखने के मोह (या जिसे वह खुद अंधविश्वास कहते हैं) से उबर जाना चाहिए।

दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

Tags: book reviewBook Review Uff Kolkatahind yugmsatya vyasउफ़्फ़ कोलकाता
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