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Home फिल्म/वेब रिव्यू

वेब-रिव्यू : उस मनहूस दिन के बाद का संघर्ष दिखाती ‘ट्रायल बाय फायर’

Deepak Dua by Deepak Dua
2023/01/14
in फिल्म/वेब रिव्यू
4
वेब-रिव्यू : उस मनहूस दिन के बाद का संघर्ष दिखाती ‘ट्रायल बाय फायर’
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-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)

इस वेब-सीरिज़ को मुझे देखना ही था। मैं पहले ही लिख चुका हूं कि 13 जून, 1997 के उस मनहूस दिन मैं भी दिल्ली के ‘उपहार’ सिनेमा में था। किस्मत अच्छी थी मेरी कि मैं ‘बॉर्डर’ के उस शो में नहीं बैठा जिसके दौरान आग लगी और 59 बेकसूर लोग मारे गए। उस दिन के बाद से मैं लगातार इस अग्निकांड से जुड़ी खबरों को देखता-पढ़ता रहा और हैरान होता रहा कि कैसे हमारे न्यायतंत्र में कुछ केस इतने लंबे खिंचते चले जाते हैं कि या तो न्याय होता नहीं है और यदि होता भी है तो उसमें से ‘न्याय’ की खुशबू गुम हो चुकी होती है। नेटफ्लिक्स पर आई यह सीरिज़ उसी खुशबू के गुम होने का सफर दिखाती है।

उस अग्निकांड में अपनों को खोने के बाद कुछ लोग मायूस होकर बैठ गए थे तो कुछ गुस्से में। लेकिन नीलम और शेखर कृष्णमूर्ति बैठे नहीं बल्कि उन्होंने तय किया कि वे कुछ ऐसा करेंगे जिससे समाज में बदलाव आए। उनके दोनों बच्चे उस दिन मारे गए थे। यह सीरिज़ दिखाती है कि कैसे उन्होंने ‘उपहार’ सिनेमा के मालिक और दिल्ली के नामी बिल्डर्स अंसल बंधुओं के साथ-साथ हर उस व्यक्ति के खिलाफ मोर्चा खोला जिसकी लापरवाही के चलते वह आग लगी और लोग उस आग में फंसे। पीड़ितों की एक एसोसिएशन बनाने से लेकर लोगों को जोड़ने, धमकियों का सामना करने, लालच से न डिगने और उससे भी बढ़ कर लगातार खुद का व दूसरों का हौसला बनाए रखने वाले इस दंपती की कोशिशों से यह नतीजा निकला कि शॉपिंग मॉल्स, सिनेमाघरों, स्कूलों व बड़ी इमारतों में आग से निबटने के उपायों के प्रति लोग व सरकारें सतर्क हुईं। यह सीरिज़ उनके इस संघर्ष को दिखाती है।

नीलम और शेखर कृष्णमूर्ति के इसी नाम के उपन्यास पर बनी यह सीरिज़ सात एपिसोड में उपहार में आग लगने के कारणों के साथ-साथ उसके बाद हमारे तंत्र की लापरवाही, असंवेदनशीलता और लाचारी को तो दिखाती ही है, इस दुर्घटना से सीधे या परोक्ष रूप से जुड़े कुछ लोगों के जीवन में भी झांकती है। यह ताकाझांकी इस घटना से पहले और बाद, दोनों समय में की गई है। ढेर सारे लेखकों ने जिस तरह से इस कहानी को फैलाया और समेटा है, वह सराहनीय है। हालांकि इस प्रयास में कुछ एक सीक्वेंस गैरज़रूरी भी लगे हैं। बहुत सारी जगहों पर कहानी की रफ्तार बेहद धीमी है जिससे उकताहट होने लगती है। मगर फिर ध्यान आता है कि उन 59 मारे गए लोगों के परिजनों को बीस साल से भी ज़्यादा समय तक चलते रहे केस के दौरान कितनी उकताहटें हुई होंगी। यह सीरिज़ उसी उकताहटों को दिखाती है।

संवाद कई जगह बहुत अच्छे हैं लेकिन अंग्रेज़ी की भरमार भी है इनमें। किरदारों का ढांचा उन्नत है और उनमें लिए गए कलाकारों ने भरपूर दमदार अभिनय किया है। अभय देओल और राजश्री देशपांडे ने तो पुरस्कार के काबिल काम किया है। बाकी सभी कलाकार, चाहे वे बार-बार आए हों या एक-दो बार, हर कोई किरदार में समाया रहा है। आशीष विद्यार्थी, शिल्पा शुक्ला, राजेश तैलंग, चेतन शर्मा, अनुपम खेर, रत्ना पाठक शाह, शार्दूल भारद्वाज, सिद्धार्थ भारद्वाज, हर किसी का अभिनय प्रभावी रहा है। प्रशांत नायर का निर्देशन असरदार है। कैमरा बेचैनी बढ़ाता है और लोकेशंस विश्वसनीयता। अंत आपको सुन्न कर देता है। यहां आकर यह सीरिज़ सफल हो जाती है।

(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)

Release Date-13 January, 2023 on Netflix

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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Comments 4

  1. Dr. Renu Goel says:
    2 months ago

    जबरदस्त सीरीज और जबरदस्त रिव्यु

    Reply
    • CineYatra says:
      2 months ago

      शुक्रिया…

      Reply
  2. Rishabh Sharma says:
    2 months ago

    अपनी कलम से, अपने शब्दों के माध्यम से आपने हर दबा हुआ एहसास जीवंत कर दिया! दर्द, तकलीफ, संघर्ष, बीस साल के हरेक पल की बैचैनी और बेबसी सब कुछ! ये भी एक लड़ाई है अन्याय के खिलाफ आवाज है असंवेदनशील सिस्टम के खिलाफ , वैसे भी ये सीरीज नही जीवन की कभी न भूलने वाली त्रासदी है! निर्देशन और सजीव चित्रण सभी कुछ असरदार है! धन्यवाद

    Reply
    • CineYatra says:
      2 months ago

      धन्यवाद

      Reply

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