• Home
  • Film Review
  • Book Review
  • Yatra
  • Yaden
  • Vividh
  • About Us
CineYatra
Advertisement
  • होम
  • फिल्म/वेब रिव्यू
  • बुक-रिव्यू
  • यात्रा
  • यादें
  • विविध
  • हमारे बारे में
No Result
View All Result
  • होम
  • फिल्म/वेब रिव्यू
  • बुक-रिव्यू
  • यात्रा
  • यादें
  • विविध
  • हमारे बारे में
No Result
View All Result
CineYatra
No Result
View All Result
ADVERTISEMENT
Home फिल्म/वेब रिव्यू

रिव्यू-इस हमाम में सब ‘कुत्ते’ हैं

Deepak Dua by Deepak Dua
2023/01/13
in फिल्म/वेब रिव्यू
6
रिव्यू-इस हमाम में सब ‘कुत्ते’ हैं
Share on FacebookShare on TwitterShare on Whatsapp

-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)

पहले एक कहानी सुनिए। एक बार एक बूढ़े शेर ने एक बकरी और एक कुत्ते की मदद से शिकार किया और बकरी से कहा कि इसे तीन हिस्सों में बांट दो। बकरी ने वैसा ही किया तो शेर नाराज़ हो गया और बकरी को मार कर खा गया। तब उसने कुत्ते से कहा कि अब इसे दो हिस्सों में बांट दो। कुत्ते ने फटाफट सारा शिकार शेर की तरफ खिसकाया और बकरी की बची-खुची हड्डियां चबाने लगा।

अब इस कहानी को सुन कर आप चाहें तो पूछ सकते हैं कि भई, कुत्ते तक तो ठीक है लेकिन शेर बकरी की मदद क्यों लेगा और बकरी उस की मदद क्यों करेगी और अगर कर भी देगी तो शिकार के तीन हिस्से क्यों करेगी जबकि बकरी तो मांस खाती ही नहीं है और इस कहानी में लॉजिक कहां हैं? तो हम कहेंगे कि लॉजिक की मां की… क्योंकि फिल्म के बीच-बीच में अपने किरदारों से कहानियां सुना-सुना कर फिल्म को आगे बढ़ाना ‘बुद्धिजीवी’ निर्देशकों की फितरत होती है।

भले ही आसमान भारद्वाज की यह पहली फिल्म हो लेकिन जो शख्स विशाल भारद्वाज जैसे निर्देशक का बेटा हो, जिसकी सारी परवरिश ही ‘बुद्धिजीवी सिनेमा’ के माहौल में हुई हो, उसकी शैली में वैसी ही झलक दिखना स्वाभाविक है। और इस फिल्म में एक यही कहानी नहीं बल्कि मेंढक और बिच्छू वाली वह कहानी भी है कि मेंढक ने बिच्छू को नदी पार कराई लेकिन बिच्छू ने उसे काट लिया। क्यों…? अरे भई बिच्छू की फितरत है। फिल्म की कहानी असल में इन दोनों कहानियों का ही मिश्रण है जिसमें दिखाई देता है कि इंसान असल में पहली कहानी के कुत्ते जैसा है कि जब मुसीबत आई तो अपने से ताकतवर के आगे झुक गया या फिर दूसरी कहानी के बिच्छू जैसा कि जब मौका मिला तो अपने से कमज़ोर को दबा दिया।

मुंबई शहर में एक गैंगस्टर के कहने पर दो पुलिस वाले दूसरे गैंग्स्टर को मारने की सुपारी उठाते हैं। लालच के चलते वे वहां से ड्रग्स भी उठा लेते हैं। सस्पैंड होते हैं तो कमिश्नर की खास इंस्पैक्टर पम्मी मैडम एक-एक करोड़ मांग लेती है। पैसे के लिए ए.टी.एम. में पैसे भरने वाली वैन लूटने निकलते हैं तो वहां भी पंगा हो जाता है। अंत में…! अब सारी कहानी बता दी तो मज़ा नहीं आएगा।

आसमान भारद्वाज ने कहानी तो साधारण सोची लेकिन फिल्म की स्क्रिप्ट में जान है। इस कहानी को जिस तरह से अलग-अलग हिस्सों में पर्दे पर उतारा गया वह तरीका भी रोचक है जो एक आम कहानी को ऊंचा उठाता दिखाई देता है। किरदार दिलचस्प हैं और उनकी हरकतें मनोरंजक। आप बार-बार मुस्कुराते हैं, कभी हंस भी देते हैं। लेकिन अपनी संपूर्णता में इसका लेखन प्रभावित नहीं कर पाता। लेखकों में विशाल भारद्वाज को अतिरिक्त पटकथा और संवाद का काम मिला। तो क्या यह माना जाए कि आसमान के लिखे का कबाड़ा-बिगाड़ा उन्होंने ही किया? संवाद बहुत हल्के हैं और बेमतलब की गालियों से भरे हुए। फिल्म देखते हुए तो यह भी लगता है कि इतनी गालियों और फिज़ूल की नंगई वाली यह फिल्म असल में बेलगाम ओ.टी.टी. के लिए बनाई गई होगी जिसे कुछ एक्स्ट्रा माल बटोरने के लिए थिएटरों के दर्शकों के सामने परोस दिया गया है। आसमान के निर्देशन में अपने पिता की झलक ही नहीं, पूरी की पूरी छाप है। उन्हें इससे अलग हटना चाहिए। 

‘बुद्धिजीवी’ लोग जब फिल्म बनाते हैं तो उसमें अपना एजेंडा घुसाए बिना नहीं रहते। यह फिल्म दिखाती है कि नक्सलियों को ‘आज़ादी’ चाहिए और वह ‘आज़ादी’ उन्हें बरसों तक भटकने के बाद भी नहीं मिल रही है। पुलिस के पूरे डिपार्टमैंट में एक भी आदमी ईमानदार नहीं है, वह भी नहीं जिसे नक्सली अच्छा समझ कर ज़िंदा छोड़ गए थे। हर तरफ बस पैसे और पॉवर की जंग छिड़ी हुई है, मारामारी है, खून-खराबा है, और जिन पर देश को सुधारने का, चलाने का ज़िम्मा है, वही लोग इसमें शामिल हैं। यहां तक कि अंत में नोटबंदी वाले सीन पर किया गया कमेंट भी इन ‘बुद्धिजीवियों’ के एजेंडे की ही उपज है।

फिल्म में कलाकारों की भरमार है। लेकिन फिल्म इन सबको बेकार करती दिखाई देती है। नसीरुद्दीन शाह, अनुराग कश्यप, आशीष विद्यार्थी, राधिका मदान, शार्दूल भारद्वाज वगैरह को तो कुछ करने को मिला ही नहीं। तब्बू ओवरलोडेड रहीं, कभी जंची तो कभी नहीं। कुमुद मिश्रा रंगत में दिखे और अर्जुन कपूर अपनी सीमित रेंज में सिमटे हुए। गुलज़ार ने गानों के नाम पर जो लिखा है, उसे सुन कर उनके शैदाई चाहें तो सिर पीट सकते हैं। हां, बैकग्राउंड म्यूज़िक ज़ोरदार है। कैमरावर्क जानदार है। एडिटिंग में कसावट है। लेकिन जब दो घंटे की लंबाई भी अखरने लगे तो समझिए कि दिक्कत बनाने वालों के साथ है, देखने वालों के साथ नहीं।

फैज़ अहमद फैज़ की एक नज़्म ‘कुत्ते’ से इस फिल्म का शीर्षक लिया गया है। लेकिन उस नज़्म से निकल रहे अर्थ और इस फिल्म से उपज रहे भावों में कोई मेल नहीं है। ‘बुद्धिजीवी’ जैसा दिखने वाला हर शख्स ‘बुद्धिजीवी’ हो ही, यह ज़रूरी तो नहीं।

(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)

Release Date-13 January, 2023 in theaters

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

Tags: aasmaan bhardwajAnurag Kashyaparjun kapoorashish vidyarathifaiz ahmad faizgulzarkumud mishrakutteykuttey 2023kuttey reviewnaseeruddin shahradhika madanShardul Bhardwajtabbutabuvishal bhardwaj
ADVERTISEMENT
Previous Post

वेब-रिव्यू : सड़ांध मारती ‘ताज़ा खबर’

Next Post

वेब-रिव्यू : उस मनहूस दिन के बाद का संघर्ष दिखाती ‘ट्रायल बाय फायर’

Related Posts

रिव्यू-सिंगल शॉट में कमाल करती ‘कृष्णा अर्जुन’
CineYatra

रिव्यू-सिंगल शॉट में कमाल करती ‘कृष्णा अर्जुन’

रिव्यू-चिकन करी का मज़ा ‘नाले राजा कोली माजा’
CineYatra

रिव्यू-चिकन करी का मज़ा ‘नाले राजा कोली माजा’

रिव्यू-मज़ा, मस्ती, मैसेज ‘जय माता जी-लैट्स रॉक’ में
CineYatra

रिव्यू-मज़ा, मस्ती, मैसेज ‘जय माता जी-लैट्स रॉक’ में

वेब-रिव्यू : झोला छाप लिखाई ‘ग्राम चिकित्सालय’ की
CineYatra

वेब-रिव्यू : झोला छाप लिखाई ‘ग्राम चिकित्सालय’ की

रिव्यू-अरमानों पर पड़ी ‘रेड 2’
CineYatra

रिव्यू-अरमानों पर पड़ी ‘रेड 2’

रिव्यू-ईमानदारी की कीमत चुकाती ‘कॉस्ताव’
फिल्म/वेब रिव्यू

रिव्यू-ईमानदारी की कीमत चुकाती ‘कॉस्ताव’

Next Post
वेब-रिव्यू : उस मनहूस दिन के बाद का संघर्ष दिखाती ‘ट्रायल बाय फायर’

वेब-रिव्यू : उस मनहूस दिन के बाद का संघर्ष दिखाती ‘ट्रायल बाय फायर’

Comments 6

  1. jaideep khanduja says:
    2 years ago

    Very apt review. 👍

    Reply
    • CineYatra says:
      2 years ago

      thanks a lot…

      Reply
  2. Subhash Sehgal says:
    2 years ago

    निष्पक्ष विवेचन

    Reply
    • CineYatra says:
      2 years ago

      धन्यवाद… आभार…

      Reply
  3. Dilip Kumar says:
    2 years ago

    नेपो पप्पू
    इस फ़िल्म पर नया नाम आया है 💐

    Reply
  4. Rishabh Sharma says:
    2 years ago

    वाह क्या बढ़िया रिव्यु दिया है आपने 👌👌 आप अपने शब्दों से सिर्फ धोते ही नहीं बल्कि पूरा निचोड़ देते हो! वैसे अब बुद्धिजीवी जैसे दिखने वाले लॉग ही रह गए हैं जो होते नही है! तभी तो सब कुछ परोसा जा रहा है क्यूंकि फर्क ही नहीं रह गया है विशाल भारद्वाज, अनुराग कश्यप की इसी परंपरा को आसमान ने आगे बढ़ाया है! नसीरुउद्दीन शाह और तब्बू जैसे संजीदा और दिग्गज कलाकार भी आज औसत बुद्धि नजर आते हैं! एंटरटेनमेंट के लिहाज से देख सकते हैं!

    Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

  • होम
  • फिल्म/वेब रिव्यू
  • बुक-रिव्यू
  • यात्रा
  • यादें
  • विविध
  • हमारे बारे में
संपर्क – dua3792@yahoo.com

© 2021 CineYatra - Design & Developed By Beat of Life Entertainment

No Result
View All Result
  • होम
  • फिल्म/वेब रिव्यू
  • बुक-रिव्यू
  • यात्रा
  • यादें
  • विविध
  • हमारे बारे में

© 2021 CineYatra - Design & Developed By Beat of Life Entertainment