-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
मई, 1974 में भारत ने पोखरण में अपना पहला परमाणु परीक्षण किया तो पाकिस्तान बौखला गया। आनन-फानन में उसने भी यहां-वहां से पैसे और संसाधन जुटाए और एटम बम बनाने में जुट गया। वहां के प्रधानमंत्री भुट्टो ने तो यह तक कह दिया कि हम भूखे रह लेंगे, घास खा लेंगे लेकिन एटम बम ज़रूर बनाएंगे। पाकिस्तान को रोकने के लिए यह पता लगाना ज़रूरी था कि वह एटम बम कहां बना रहा है। यह काम किया भारत की खुफिया एजेंसी रॉ के उन जासूसों ने जो पाकिस्तान में छुप कर रह रहे थे। यह फिल्म ऐसे ही कुछ जासूसों के उस मिशन को दिखाती है जिसका फिल्म में नाम ‘मिशन मजनू’ है।
नाम से यह कोई रोमांटिक, छपरी किस्म की फिल्म लगती है और इसका यह टाइटिल ही इसकी पहली कमज़ोरी है। इसके बाद आती है वह कहानी जो दिखाती है कि कैसे एक देश के जासूस दूसरे मुल्क में घुल-मिल कर रहते हैं, जोखिम उठाते हैं, अपने देश को खबरें भेजते हैं और ज़रा-सा चूके तो जान से हाथ धो बैठते हैं। साथ ही वे कैसे अपनी असली व नकली पहचान के बीच संतुलन बनाते हैं, कैसे वे अपने जज़्बातों, अपनी कमज़ोरियों को काबू रखते हैं, इस तरह की फिल्में यह सब बखूबी दिखाती हैं जिनकी आवक मेघना गुलज़ार की ‘राज़ी’ (रिव्यू-खुरपेंच राहों पर ‘राज़ी’ सफर) के बाद बढ़ चली है।
दिक्कत कहानी में नहीं बल्कि इस फिल्म की स्क्रिप्ट और किरदारों के साथ ज़्यादा है। इस की पटकथा में ‘फिल्मीपन’ बहुत ज़्यादा है। इसमें संयोग बहुत होते हैं। घटनाक्रम फटाफट होने से साफ लगता है कि हम एक ‘फिल्म’ देख रहे हैं जिसमें सब कुछ ‘फिल्मी’ है, ज़मीनी नहीं। किरदारों की पृष्ठभूमि में न जाकर उनका सिर्फ वर्तमान दिखाना इसे हल्का बनाता है। साधारण कहानी, औसत पटकथा और हल्के संवाद इसे एक आम, ठीक-ठाक सा मनोरंजन देने वाली फिल्म बना देते हैं। शांतनु बागची का निर्देशन साधारण है, उसमें कोई अनोखी, हट के वाली बात नज़र नहीं आती।
सिद्धार्थ मल्होत्रा के अभिनय की रेंज बहुत सीमित है। ज़रा-सा इधर-उधर होते ही उनका बनावटीपन झलकने लगता है। ‘पुष्पा’ वाली रश्मिका मंदाना खूबसूरत और प्यारी लगीं, काम भी अच्छा कर गईं। असली रंग तो साथी कलाकारों ने जमाया। परमीत सेठी, शारिब हाशमी, कुमुद मिश्रा, मनोज बक्शी, रजत कपूर, अश्वत्थ भट्ट, ज़ाकिर हुसैन, शिशिर शर्मा, अविजित दत्त, मीर सरवर, अवंतिका अकेरकर, तृप्ता लखनपाल जैसे कलाकारों ने फिल्म को अधिक दर्शनीय बनाया। लोकेशन ठीक रहीं, कैमरावर्क साधारण। गीत-संगीत फिल्म में रचा-बसा रहा। मनोज मुंतशिर का गीत ‘मिट्टी को मां…’ उम्दा रहा। एक्शन सीन जब भी आए, अच्छे लगे।
नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ हुई यह एक औसत फिल्म है जो ज़्यादा तनाव न रचते हुए टाइमपास मनोरंजन दे जाती है और देश के ऐसे बेटों की कहानी दिखा जाती है जिनके जिस्मों पर वर्दी नहीं होती, कंधे पर सितारे नहीं होते, जिनके ज़िक्र पर झंडे नहीं झुकते लेकिन जांनिसारी की कतारों में वे सबसे आगे मिलते हैं।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-20 January, 2023 on Netflix
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Bahut badhiya aur sateek aakalan kiya hai aapne 👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻
धन्यवाद
देखते हैं ,वैसे बेहद खूबसूरत सिद्धार्थ प्लास्टिक नुमा अभिनय करते हैं
बहुत ही सटीक समीक्षा की है आपने!! फिल्म के टाइटल से लेकर स्क्रिप्ट, डायलग, संगीत और अभिनय सबकुछ सामान्य से ज्यादा कुछ नहीं! एक बहुत ही अच्छी कहानी के साथ ना तो निर्देशक शांत्तनु न्याय कर पाए और नाही सिद्धार्थ मल्होत्रा अपने अभिनय का कोई कमाल दिखा पाए! मेघना गुलजार और आलिया भट्ट की राज़ी रह रह कर याद आती रही! बस वन टाइम वॉच है!
धन्यवाद