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Home फिल्म/वेब रिव्यू

रिव्यू-रंगत और रंगीनियत का मसालेदार ‘रक्षा बंधन’

Deepak Dua by Deepak Dua
2022/08/11
in फिल्म/वेब रिव्यू
6
रिव्यू-रंगत और रंगीनियत का मसालेदार ‘रक्षा बंधन’
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-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)

दिल्ली के चांदनी चौक में रहता है लाला केदार नाथ। इस ज़माने में ऐसा पुराना नाम? नाम से इस आदमी को पुराना न समझिए, जवान है छोरा, भले ही देखने में 40 का लगता हो। उसके बचपन की दोस्त सपना उससे शादी करना चाहती है। बचपन की दोस्त यानी हमउम्र ही होगी। नहीं, बिल्कुल नहीं। वह 30 से ऊपर की नहीं लगती। सपना का बाप (पापा या पिता नहीं, बाप, क्योंकि पूरी फिल्म में ऐसी ही वाहियात, बदतमीज़ी भरी भाषा का इस्तेमाल किया गया है) भी इस शादी के लिए राजी है और वह चाहता है कि कुछ महीने बाद हो रही उसकी रिटायरमैंट से पहले उसकी बेटी की केदार नाथ से शादी हो जाए। इसके लिए वह बाकायदा अपने होने वाले दामाद को उलाहने, ताने, गालियां देकर पूरी बदतमीज़ी से जताता भी रहता है कि जल्दी करो नहीं तो बेटी कहीं और ब्याह दूंगा। मगर केदार नाथ की मां मरते समय उससे वचन ले गई थी कि जब तक चारों बहनों की शादी न हो जाए, घोड़ी पर मत चढ़ना।

अब मां ने ऐसा अव्यावहारिक वचन क्यों लिया, हमें क्या पता, मां तो मर गई न। खैर कोई नहीं, लाला जी लगे हुए हैं अपनी गोलगप्पे की दुकान से नोट छापने में क्योंकि उनकी इस पुश्तैनी दुकान पर गर्भवती औरतें लड़के की आस में लाइन लगा कर गोलगप्पे खाती हैं। दिक्कत दरअसल आ रही है बहनों के दहेज में, क्योंकि लाला के पुरखों ने आजादी से पहले कोई लोन लिया था जिसकी किस्तें वह अब तक चुका रहा है। भई, राइटर लोगों ने लिख दिया तो लिख दिया, हमारा क्या कसूर। किसी तरह से एक सुंदर, सुशील बहन की शादी लाला ने कर भी दी। लेकिन बाकी की तीन तो टेढ़ी-बांकी हैं, उन्हें कौन ब्याह ले जाएगा? और इतना दहेज लाला कहां से लाएगा? दुकान बेच कर या किडनी?

इस फिल्म को आप दो तरीके से देख सकते हैं। पहला तरीका तो बिल्कुल आम दर्शक वाला है जिसमें दिखता है कि एक भाई अपनी मरी हुई मां को दिए वचन को निभाने के लिए अपनी चारों बहनों की शादी करवाने की जुगत में लगा हुआ है। वह रात-दिन परेशान है, धक्के खाता है, ज़्यादा नोट कमाने के लिए माता के जागरण में गाता है, मैरिज ब्यूरो के चक्कर लगाता है लेकिन फिर भी न तो अपनी बहनों के लिए अच्छे लड़के तलाश पाता है और न ही उनके दहेज के लिए पूरे पैसे जुटा पाता है। एक दिन उसे ठोकर लगती है और समझ में आता है कि उसे इस रास्ते पर जाना ही नहीं था। तब वह दूसरा रास्ता अपनाता है और अपनी बहनों का जीवन संवारने में जुट जाता है।

यह पहले वाला तरीका सेफ भी है और मनोरंजक भी। इस तरीके से फिल्म देखते हुए आपको अपने दिमाग पर ज़ोर नहीं लगाना पड़ता कि सामने पर्दे पर एक घंटे 50 मिनट तक जो हो रहा है वह कितना बनावटी या अतार्किक है। आप यह भी नहीं सोचते कि पुरानी दिल्ली के ये शरीफ लोग ऐसे कैसे वाहियात और बेहूदा ढंग से एक-दूसरे से बात कर रहे हैं। आप के दिमाग में ‘ऐसा भी कहीं होता है क्या’ या ‘ऐसा कैसे हो सकता है’ टाइप के सवाल भी नहीं आते। इस तरीके से फिल्म देखते हुए आप सामने चल रही हरकतों को एन्जॉय करते हैं, चीख-चिल्ला कर बोले गए संवादों पर हंसते हैं, इमोशनल सीन पर भावुक होते हैं और हैप्पी एंडिंग पर खुश होते हैं। बढ़िया है यह तरीका।

लेकिन नहीं, आपने तो ठान रखा है कि आप फिल्म देखते समय सोचेंगे भी, सवाल भी पूछेंगे, उनके जवाब भी मांगेंगे। तो इस दूसरे तरीके से फिल्म देखते समय आप सोचेंगे कि हिमांशु शर्मा और कनिका ढिल्लों जैसे राइटरों ने इस कहानी को खुद लिखा होगा या किसी सातवें असिस्टैंट से लिखवा कर अपना नाम चेप दिया होगा। हालांकि पचास साल पहले के ज़माने वाली कहानी को निर्देशक आनंद एल. राय ने बेहद तेज़ रफ्तार से निबटाया है लेकिन न तो कहानी और न ही उसका ट्रीटमैंट आपके अंदर के जिज्ञासु दर्शक को शांत कर पाएगा। तब आपका ध्यान स्क्रिप्ट के छेदों की तरफ जाएगा, दहेज के बारे में दिए ऊल-जलूल उपदेशों पर जाएगा, किरदारों की भाषा पर जाएगा और फिर आप ही का सिर भन्नाएगा।

हिमांशु शर्मा और आनंद एल. राय मिल कर जिस किस्म का रंग-बिरंगा माहौल बनाते आए हैं, वह इस फिल्म में पहले सीन से अंत तक छाया रहा है। गीत-संगीत में भी वही रंगत है जो इनकी जोड़ी वाली फिल्मों में अक्सर होती है। लंबे समय तक याद भले न रहें, देखने-थिरकाने लायक गाने तो बना ही डाले हैं इन्होंने हिमेश रेशमिया के साथ मिल कर। अक्षय कुमार, भूमि पेडनेकर अपने किरदारों में विश्वसनीय रहे हैं। ‘शिकारा’ में आ चुकीं सादिया खतीब प्यारी लगती हैं। बाकी की तीनों बहनों के किरदार में दीपिका खन्ना, समृद्धि श्रीकांत, सहजमीन कौर भी ठीक रहीं। नीरज सूद और सीमा पाहवा ने जम कर असर छोड़ा। लेकिन सबसे बढ़िया काम रहा लाला की दुकान पर काम करने वाले गफ्फार यानी साहिल मेहता का। वैसे, असर तो यह पूरी फिल्म भी छोड़ सकती है, बशर्ते कि इसे पहले वाले तरीके से देखा जाए, दिमाग एक तरफ रख कर। क्योंकि दिमाग लगाते ही आप कहेंगे कि हिन्दी सिनेमा में फिल्में नहीं प्रपोज़ल बना करते हैं-दो और दो पांच बनाने के।

(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)

Release Date-11 August, 2022

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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Comments 6

  1. Nirmal kumar says:
    3 years ago

    रिव्यू पढ़ने के बाद इस पर तो पैसा न खर्च करने वाले। बचे पैसे से एक महीना गोलगप्पे खा लेंगे 🤔😅

    Reply
  2. शोभित जायसवाल says:
    3 years ago

    पहले वाले मेथड से ही देखूंगा फिल्म
    📽️

    Reply
  3. Monika says:
    3 years ago

    Isse kehte h Shandar review

    Reply
    • CineYatra says:
      3 years ago

      Thanks…

      Reply
  4. Dr. Renu Goel says:
    3 years ago

    Boring and old concept movie
    Dekhne mai time waste nhi krungi

    Reply
  5. Rishabh Sharma says:
    3 years ago

    दीपक जी, रिव्यू पढ़ने के बाद तो लग रहा है कि इतनी थकेली फिल्म देखने से अच्छा है कि एक अच्छी नींद ले ली जाए वैसे भी दर्शक कुछ देर रिलैक्स फील करने के लिए फिल्म देखता है और अच्छा सिनेमा अब बीते कल की बात हो गई है कभी कभी ही कोई अच्छी फिल्म बनती है अक्षय कुमार कुछ नया महसूस नहीं कराते वह किरदारों मैं लाउड नजर आते है बाकी सब भी बस खानापूर्ति के लिए है थैंक्स फॉर योर होनेस्ट रिव्यू

    Reply

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