-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
कुछ बच्चे इंटेलिजैंट होते हैं, कुछ नॉर्मल और कुछ होते हैं नॉर्मल से कम। लाल सिंह चड्ढा ऐसा ही एक बच्चा है, नॉर्मल से कम। दुनिया की नज़र में बुद्धू। ऐसे लोग दिल की ज़्यादा सुनते हैं और इनके भीतर छल-कपट बिल्कुल नहीं होता। शायद इसीलिए किस्मत भी इनका साथ देती है। ट्रेन में बैठ कर कहीं जा रहा लाल सिंह साथी यात्रियों को अपनी ज़िंदगी के सफर के बारे में बता रहा है। पंजाब के अपने गांव, स्कूल में मिली रूपा डिसूजा से दोस्ती, दिल्ली का कॉलेज, खेल, पढ़ाई, फौज की नौकरी, कारगिल की लड़ाई, बिजनेस जैसी तमाम बातें बताते-बताते लाल सिंह यह भी बताता है कि वह रूपा को बार-बार शादी के लिए प्रपोज़ करता रहा है। आज वह उसी रूपा से मिलने जा रहा है। क्यों?
जिन लोगों ने 1994 में आई अमेरिकी अंग्रेज़ी फिल्म ‘फॉरेस्ट गंप’ देखी है उन्हें भले ही पता हो कि फिल्म की कहानी क्या है लेकिन उनके अंदर भी यह जानने की उत्सुकता हो सकती है कि यह फिल्म मूल फिल्म से कितनी अलग, कितनी बेहतर या कितनी खराब बनी है। लेकिन ऐसे लोग भी बहुत होंगे जिन्होंने वह फिल्म नहीं देखी होगी और वैसे भी हर एक फिल्म एक अलहदा प्रॉडक्ट होती है। सो, उस फिल्म से तुलना करने की बजाय आइए, इसे इसी की कमियों-खूबियों पर परखते हैं।
दरअसल यह फिल्म लाल सिंह चड्ढा नाम के इंसान के साथ-साथ चलते हुए भारत देश के समय और हालात को भी दिखाती है। 1977 में जब इमरजैंसी हटी तो लाल सिंह अपनी मां के साथ एक दुकान से सामान ले रहा था। 1984 के ऑपरेशन ब्लू स्टार के समय वह अमृतसर में था। जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हुई तो वह वहीं बाहर ही फोटो खिंचवा रहा था। मंडल कमीशन, रथ यात्रा, बाबरी का तोड़ा जाना, कारगिल, मुंबई पर हमले आदि कई सामयिक घटनाओं को इस कहानी का हिस्सा बनाया गया है। लेकिन यह फिल्म देश के बारे में नहीं है। यह लाल सिंह के बारे में है। वही लाल सिंह जिसे दुनिया में जिस-जिसने जो-जो सिखाया, वह सीखता चला गया। जो भी उसके करीब आया, उसका अपना होता चला गया। लेकिन जिस रूपा को उसने चाहा, वह उससे दूर ही होती चली गई और अब मिल भी रही है तो…।
अभिनेता अतुल कुलकर्णी ने मूल कथानक को भारतीय परिवेश में ढालते समय जो मेहनत की है, वह पर्दे पर दिखती है। बड़े ही कायदे से उन्होंने लाल सिंह के साथ-साथ भारत के सफर को जोड़ा है। लेकिन बड़ी ही चतुराई से वह कुछ एक चीजों का ज़िक्र छोड़ भी गए। स्क्रिप्ट के प्रवाह में कहीं-कहीं चीज़ें ऊपर-नीचे भी हुई हैं लेकिन वह आसानी से पकड़ में नहीं आतीं। फिल्म के शुरू में ढेर सारी राज्य सरकारों को धन्यवाद देने से लगता है कि इस फिल्म में देश की कई तस्वीरें देखने को मिलेंगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं है।
यह कहानी असल में प्यार की है, त्याग की है। लोगों से बिछुड़ने-मिलने, उन्हें पाने-खोने की है। इंसानी ज़िंदगी के छोटे-से सफर में अहं को मारने और खुद को कुदरती प्रवाह के हवाले कर देने की है। यह बहुत सारी सीखें भी देती है। खासतौर से देश में कुछ भी दंगा-फसाद होने पर लाल सिंह की मां का उसे यह कहना कि बाहर नहीं निकलना, बाहर मलेरिया फैला हुआ है, असर छोड़ता है। यह कहानी भावनाओं की है, उन जज़्बातों की है जो इंसान को इंसान बनाए रखते हैं। तो जब इतना कुछ है तो यह ‘महसूस’ क्यों नहीं हो रही? इसे देखते हुए कसक क्यों नहीं उठती? रोमांच क्यों नहीं होता?
अद्वैत चंदन के निर्देशन में कमी नहीं है। उन्हें सीन बनाने आते हैं, यह वह ‘सीक्रेट सुपरस्टार’ में दिखा चुके हैं। यहां भी उन्होंने ज़ोर कम नहीं होने दिया है। लेकिन फिल्म की गति इसका साथ छोड़ती है। बार-बार इसकी रफ्तार लचक जाती है। दूसरी बड़ी कमी इसके उस ट्रीटमैंट के साथ है जो बहुत ही ‘क्लासी’ किस्म का है। पर्दे पर जो हो रहा है वह सही लगते हुए भी अपना-सा नहीं लगता। लगभग पूरी फिल्म में एक रूखापन, एक ठंडापन-सा तारी है। गर्मजोशी की कमी कह लीजिए या दृश्यों का बनावटीपन, चीज़ें पर्दे से उतर कर दिल में नहीं भर पातीं। एक खालीपन-सा लगता है इस फिल्म को देखने के बाद, लगता है जैसे कुछ हासिल ही नहीं हुआ। प्रबुद्ध लोग चाहें तो वाहवाही कर सकते हैं मगर आम दर्शक की प्यास नहीं बुझा पाती यह फिल्म।
आमिर खान ने लुक से, पोशाकों से, भंगिमाओं से, वी.एफ.एक्स. से लाल सिंह के किरदार को जम कर जिया है। लेकिन कोई बहुत अनोखा, कोई बहुत लाजवाब कर देने वाला काम दो-तीन सीन को छोड़ कर महसूस नहीं होता। करीना कपूर अपने किरदार की बदलती रंगत के मुताबिक असर छोड़ने में कामयाब रही हैं। मानव विज, नागार्जुन के बेटे चैतन्य अक्किनेनी व बाकी कलाकार सही रहे। गाढ़ा असर तो छोड़ा है लाल सिंह की मां बनीं मोना सिंह ने। गानों के शब्द अच्छे हैं लेकिन बेहतर धुनों का अभाव इन्हें फीका बनाता है। हां, बैकग्राउंड म्यूज़िक बहुत प्यारा और असरदार है।
लाल सिंह ट्रेन में गोलगप्पे कैसे खा रहा है, इसका जवाब तो फिल्म पहले ही सीन में दे देती है लेकिन लाल सिंह दूसरे दर्जे में सफर क्यों कर रहा है, जैसे कई सवालों के जवाब देना यह ज़रूरी नहीं समझती। फिर इस फिल्म का नाम ‘लाल सिंह चड्ढा’ ही क्यों है? क्या सिर्फ इसलिए कि ‘फॉरेस्ट गंप’ में भी नायक का नाम ‘फॉरेस्ट गंप’ था? कहानी के ‘कहन’ को सूट करता कोई नाम इनके मन में क्यों नहीं आया? दरअसल यह फिल्म कहती तो बहुत कुछ है, लेकिन वह ‘कहना’ सुनाई नहीं देता क्योंकि यह फिल्म अपने कलेवर में सीधी है, सरल है, साधारण है और काफी हद तक सपाट है। लाल सिंह की मां के ही शब्दों में कहें तो यह फिल्म गोलगप्पे सरीखी है, इसे देख कर पेट तो भरता है, मन नहीं भरता।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-11 August, 2022
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
बहुत ही बैलेंसिंग मामला है पा’ जी।
न खुल कर तारीफ ही कर पा रहे हैं न ही बुराई 🤔
परंतु आपकी कलम इशारा कर रही है कि देख लेने में बुराई नहीं। पैसे वसूल तो हो ही जाएंगे 😍
Bhut bdia review
लाल सिंह चड्ढा!!
ये एक फ़िल्म नहीं एक यात्रा है।
कभी कभी मंज़िल पे पहुंचने से ज़्यादा मज़ा सफ़र का आता है।
ये एक ऐसा ही सफ़र है।
धन्यवाद आमिर एंड टीम ।।
इस इमोशनल सफ़र के लिए।
और हां!!
बॉयकॉटर्स अपनी नफ़रत के साथ खुश रहें और जल्दी स्वस्थ हो कर इसे देखें अवश्य।
🙏🙏
प्रिय दीपक जी, किसी फिल्म की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वह आम जन मानस के दिमाग पर कितना असर छोड़ती है! और ये तबाही संभव है जब आम आदमी से उसी की भाषा में बात की जाए लेकिन जैसे की अपने कहा की ये फिल्म आम दर्शक की प्यास नहीं बुझा पाती ऐसा लगता है वैसे की कुछ महसूस जी नहीं हुआ बस यही सबसे बड़ी असफलता है लाल सिंह चड्ढा की सिर्फ प्रबुद्ध लोगों की वाह वाही से काम नहीं चलता गोलगप्पे का स्वाद आम जनता ही बताएगी वैसे apke रिव्यू से काफी मदद मिली धन्यवाद
भारतीय परिवेश के अनुसार यह फिल्म ठीक नहीं है अमेरिकन वियतनाम युद्ध जैसी परिस्थितियां भारत में कभी नहीं रहे उसका रूपांतरण किस तरह करना बेहद गलत है इसलिए जो मूवी समाज के लिए फिट न हो वह मूवी देखने योग्य भी नहीं होती मेरे हिसाब से इस मूवी को एक STAR देना भी उचित नहीं लगता