-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
ओ.टी.टी. के आने से सिनेमा की जो तस्वीर बदलनी शुरू हुई है, उसी का नतीजा है कि आज देश के विभिन्न हिस्सों में क्षेत्रीय भाषाओं की कहानियां दिखा रहे ढेरों ओ.टी.टी. ऐप मौजूद हैं जिन पर काफी स्तरीय सामग्री परोसी जा रही है। हरियाणवी और राजस्थानी भाषाओं, बोलियों को बढ़ावा देने का काम कर रहे ‘स्टेज ऐप’ पर आई हरियाणवी वेब सीरिज़ ‘अखाड़ा’ देख कर सुखद आश्चर्य होता है कि क्षेत्रीय भाषाओं में भी इतना बढ़िया काम हो रहा है।
नाम से ही ज़ाहिर है कि यह कहानी एक अखाड़े के इर्दगिर्द घूमती है। लगभग आधे-आधे घंटे के छह एपिसोड में आए इस सीज़न-एक की कहानी की शुरूआत बताती है कि हरियाणा के इस हिस्से में करण नाम के एक गैंग्स्टर का आतंक है और पूनम पुलिस में अफसर बन कर आई है। कहानी पीछे जाती है जब करण और पूनम एक ही अखाड़े में कुश्ती की प्रैक्टिस किया करते थे। वहां कोच का भतीजे मोंटी भी है जो पूनम को चाहता है लेकिन पूनम करण की दीवानी है। मगर करण को अपनी हैसियत का अंदाज़ा है और वह अपना ध्यान सिर्फ कुश्ती पर लगाए रखना चाहता है। तो फिर कैसे वह अपराध के रास्ते पर चलने लगा, मोंटी का क्या हुआ, पहलवान बनने के करण के सपने का क्या हुआ, जैसी तमाम बातों के जवाब बाकी एपिसोड में मिलते हैं।
इस सीरिज़ की बड़ी खासियत इसकी कहानी नहीं बल्कि उस कहानी को दिया गया विस्तार है जो बताता है कि कैसे खेल के मैदान से लोग अपराध के मैदान तक जा पहुंचते हैं। पहलवानी के खेल से अपराध का रास्ता पकड़ने के वैसे भी कई उदाहरण हमारे समाज में मौजूद हैं। यह कहानी खेल के पीछे की उठा-पटक, राजनीति, जात-पात, वर्चस्व की लड़ाई जैसी कई बातों को अपने भीतर समेटे हुए है और खास बात यह भी है कि ये बातें बेगानी या उथली नहीं लगतीं बल्कि इन्हें देखते हुए हरियाणा के सामाजिक समीकरणों की भी झलक मिलती है। मसलन पूनम का करण पर मरना, लेकिन करण का यह स्वीकारना कि एक तो वह गरीब है और दूसरे पूनम की जाति का नहीं है, उस कड़वे सच की बानगी है जो हरियाणा के समाज में मौजूद भी है और स्वीकार्य भी।
लेखक संजय सैनी ने खेल, रिश्तों, समाज और अपराध के धागों को आपस में बुनते समय सामाजिक ताने-बाने का बखूबी ख्याल रखा है। यही कारण है कि कुछ एक जगह और कुछ एक पलों को छोड़ कर यह कहानी अखरती नही हैं। हां, स्क्रिप्ट में कई जगह लचक ज़रूर आई है और अंत आते-आते यह थोड़ी आतार्किक भी हुई है। अगर इसे कस कर रखा जाता तो हर एपिसोड तीन-चार मिनट छोटा हो सकता था। उम्मीद की जानी चाहिए कि अगले सीज़न में कहानी और निखर कर, और कस कर आएगी। एक असरदार पहलू इसके संवाद भी हैं। ऐसे बहुत सारे डायलॉग हैं जो सीधे ज़ेहन पर असर छोड़ते हैं। अपनी मिट्टी से जुड़े लेखन की उम्दा मिसाल है यह कहानी।
इस कहानी के किरदार बेहतर ढंग से विकसित किए गए हैं और उन्हें निभाने वाले कलाकारों ने भी अपनी तरफ से कोई कमी नहीं छोड़ी है। इंदर के रूप में नायक के शराबी भाई का इतना प्यारा किरदार पहले कहीं नहीं दिखा। जितेंद्र हुड्डा ने इस भूमिका को बहुत ही असरदार ढंग से निभाया है। संदीप गोयत, मेघा शर्मा, रमेश भानवाला, सुमन सेन, बृज भारद्वाज, अरमान अहलावत, अमित अंतिल, मोहित नैन आदि जैसे सभी कलाकार खूब जंचे हैं। एक बड़ी बात संजय के लेखन की यह भी रही कि इस गंभीर मिज़ाज की कहानी में राहत व हंसी के क्षण देने के लिए उन्होंने पूनम को एकतरफा प्यार करने वाले एक आशिक (विकास) का किरदार भी रखा है जो कहानी का हिस्सा लगता है और जब भी आता है, माहौल हल्का कर जाता है।
आशु छाबड़ा का निर्देशन अच्छा रहा है। उन्हें दृश्यों को कायदे से संयोजित करने का हुनर आता है। गाने कहानी के स्वाद के मुताबिक हैं। लोकेशन विश्वसनीय लगती हैं और राहुल राकेश का कैमरा दृश्यों का असर गाढ़ा करने में मददगार साबित हुआ है। कहीं-कहीं थोड़ी हल्की होने के बावजूद ‘अखाड़ा’ अपनी बात को असरदार ढंग से कह पाने में कामयाब रही है और अवश्य देखी जानी चाहिए।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि सीरिज़ कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-09 August, 2022
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)