-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
इस फिल्म ‘कार्तिकेय 2’ का पिछला भाग ‘कार्तिकेय’ 2014 में आया था जिसमें मेडिकल स्टुडैंट हीरो कार्तिकेय ने एक रहस्य को सुलझाया था। अब इस फिल्म में डॉक्टर बन चुका कार्तिकेय एक और बड़े रहस्य को सुलझाने निकला है। पिछली वाली फिल्म से इसका सीधे तौर पर कोई नाता नहीं है। हां, ‘कार्तिकेय 3’ ज़रूर इसी वाली का सीक्वेल होगी जिसके कई सीन इस फिल्म के अंत में दिखा कर निर्देशक चंदू मोंडेटी ने जता और बता दिया है कि वह कहानी को किस दिशा और स्तर तक ले जाने वाले हैं।
जिज्ञासु स्वभाव का कार्तिकेय अपनी मां के साथ हैदराबाद से गुजरात श्रीकृष्ण की नगरी द्वारका के दर्शन को जाता है। वहां एक घायल बूढ़ा उसे कुछ पल के लिए मिलता है और गायब हो जाता है। अब कुछ लोग उसके पीछे पड़ जाते हैं कि बूढ़े ने उसे क्या बताया था। बूढ़े की पोती, अपने मामा और टैंपो ड्राईवर सुलेमान के साथ कार्तिकेय एक रहस्यमयी चीज़ की खोज में निकल पड़ता है। वे लोग इन्हें रोकने में लगे हैं। उधर अभीर नामक एक समुदाय के लोग भी इनके पीछे पड़े हुए हैं। श्रीकृष्ण की डूब चुकी नगरी बेट द्वारका, गोवर्धन पर्वत, हिमाचल आदि होते हुए ये आखिर उस रहस्यमयी चीज़ तक जा पहुंचते हैं जो असल में श्रीकृष्ण के पांव का सोने का कड़ा है जिस पर ऐसे मंत्र लिखे हुए हैं जिनसे महामारियों की दवा बन सकती है।
यह फिल्म दरअसल पौराणिक विवरणों को आज के समय से जोड़ कर एक ऐसी काल्पनिक कहानी परोसने का प्रयास करती है जिस पर यकीन कर लेने का मन होता है। फिल्म एक जगह कहती भी है कि श्रीकृष्ण को देवता बना कर हमने उन्हें मिथक मान लिया जबकि वह हमारे इतिहास का हिस्सा हैं। एक तरह से यह फिल्म कहानियों के अंधेरे में हाथ-पांव मार रहे फिल्म वालों को उस उजाले की तरफ ले जाने की कोशिश करती है कि अपने पुराणों और इतिहास को खंगाल कर कहानियां तलाशी जाएं तो न बढ़िया कहानियों की कमी रहेगी और न ही अच्छी फिल्मों का टोटा। याद कीजिए ‘बाहुबली’ ने यही किया था, ‘तुम्बाड’ ने भी यही किया था।
(रिव्यू-बाहुबली 2… अद्भुत, अतुल्य, अकल्पनीय)
(रिव्यू-सिनेमाई खज़ाने की चाबी है ‘तुम्बाड’)
दशकों पहले अपने यहां ‘कथा एक कंस की’ जैसा प्रतिष्ठित नाटक लिखा जा चुका है जिसमें कंस, कृष्ण जैसे सभी पात्रों को मानवीय स्थितियों में चित्रित किया गया था, बिना किसी सुपर-पॉवर के। यह फिल्म भी यही बताती है कि श्रीकृष्ण एक वास्तविक मानव थे जिनके पास अकूत ज्ञान था। उसी ज्ञान का एक हिस्सा उनके पांव के उस कड़े पर लिखा है जिसे उनके सखा उद्धव ने कहीं सुरक्षित रख कर उस तक पहुंचने के रास्ते में बाधाएं बना दीं और उन बाधाओं से पार पाने के संकेत भी छोड़ दिए। शोधकर्ताओं का एक गुप्त समूह इस कड़े को बुरे इरादों से हासिल करना चाहता है जबकि मरते हुए घायल बूढ़े ने नेक नीयत वाले कार्तिकेय को इस काम के लिए चुना जो अपनी बुद्धि और बल का इस्तेमाल करते हुए आगे बढ़ता है।
अपनी बुनावट में यह फिल्म बाबू देवकीनंदन खत्री के ‘चंद्रकांता’ सीरिज़ के उपन्यासों जैसा तिलिस्म रचती है। हालांकि यह दुर्भाग्य ही है कि सवा सौ साल पहले उनके उपन्यासों को पढ़ने के लिए गैर हिन्दीभाषी लोगों ने तो हिन्दी सीखी लेकिन हिन्दी फिल्म उद्योग आज तक उन उपन्यासों पर कायदे की एक फिल्म तक नहीं बना सका। कहानियों के बेशकीमती खज़ाने पर आंखें मूंदे बैठी इस इंडस्ट्री का पतन होना ही चाहिए। खैर… कहानी कहने के ढंग में यह फिल्म हॉलीवुड वालों का घिसा हुआ फार्मूला अपनाती है। संयोग से मिल बैठे नायक-नायिका, जिनके साथ दो ऐसे साथी जो काम कम और कॉमेडी ज़्यादा करते हों, की टीम किस्म-किस्म के हालात का सामना करते हुए आखिर मंज़िल तक जा ही पहुंचती है। इनका यह सफर रोचक है, रोमांचक है और दर्शकों की उत्सुकता बनाए रखता है।
निखिल सिद्धार्थ अपने रोल में जंचे हैं। हालांकि उन्हें थोड़ा और बलिष्ठ दिखाया जाना चाहिए था। अनुपमा परमेश्वरन प्यारी लगती हैं। फिल्म में उनके किरदार को और अधिक टेलेंटिड दिखा कर उन्हें शो-पीस बनने से बचाना चाहिए था। अनुपम खेर जब श्रीकृष्ण के बारे में समझाते हैं तो रोमांच होता है। बाकी सब ठीक है।
यह फिल्म अपने उलझे हुए नैरेशन के कारण दिमाग पर ज़ोर लगवाती है। बहुत सारी बातों के ताने-बाने भी दर्शक को उलझाते हैं। कार्तिकेय को चुने जाने की वजह बहुत हल्की है। मिलने वाले हल्के-से संकेतों को भी तुरंत समझने की उसकी क्षमता ‘फिल्मी’ लगती है। अभीर समुदाय की बैक-स्टोरी फिल्म बनाने वालों के निजी एजेंडा से प्रभावित लगती है। ठीक वैसे ही, जैसे उन्हें इस टीम में एक ‘सुलेमान’ की ज़रूरत महसूस हुई। बावजूद इसके, कुछ लोगों को द्वापर युग में बनी दूरबीन बड़े ज़ोरों से चुभ सकती है। लोकेशनों के चयन में भी सावधानी बरती जानी चाहिए थी। असल में तेलुगू वालों को अगर हिन्दी के बाजार को भी कब्जाना है तो उन्हें हिन्दी वालों की सेवाएं भी लेनी होंगी जैसे ‘बाहुबली’ में ली गईं वरना तो ये लोग बुंदेलखंड में कच्छ का सफेद रेगिस्तान और छकड़ा वाहन दिखा देंगे और अपने ही निर्माता का सरनेम अग्रवाल की बजाय अगर्वाल लिख देंगे।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-13 August, 2022
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
निसंदेह एक बेहतरीन समीक्षा, गुण दोषों का सुंदर विवेचन और साथ में एक सटीक निष्कर्ष ।साधुवाद
धन्यवाद…
प्रिय दीपक दुआ जी, वाह! कितनी बारीकी के साथ आपने बेहतरीन समीक्षा की है! जिस तरह आप सभी पहलू को अपने अनुभव के चश्मे से देखते हैं बेहद सराहनीय कार्य है ! आपका रिव्यू ही फैसला कर देता है तो रेटिंग की जरूरत नहीं होती! धन्यवाद
शुक्रिया बहुत सारा…
फिल्म पसंद आई है, फिल्म कि कहानी अंत तक कुर्सी से चिपकाए रखती हैं. अनुपम खेर ने जिस तरह से श्री कृष्ण जी के बारे में बताया है वो काबिले तारीफ है,अब बालीवुड वालों को साऊथ सिनेमा से कुछ सिखना चाहिए कब तक दुसरों कि रिमेक करते रहेंगे