-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
1990-कश्मीर से भागने पर मजबूर हुए कश्मीरी पंडितों में से किसी एक ने कहा-देखना पार्लियामैंट में खूब शोर मचेगा और हम लोग हफ्ते-दस दिन में अपने कश्मीर वापस चलेंगे। मगर अफसोस, ऐसा कुछ नहीं हुआ।
2020-कश्मीरी पंडितों की बात कहती एक फिल्म आती है। इन लोगों को उम्मीद जगती है कि यह हमारी दुर्दशा दिखाएगी, हमारे हक की तीस साल लंबी लड़ाई में हथियार बन कर हमारा साथ देगी। मगर अफसोस, ऐसा कुछ नहीं हुआ।
जम्मू में कश्मीरी पंडितों के रिफ्यूजी कैंप में तीस साल से रह रहे अधेड़ शिव और शांति अपने बीते दिनों को याद कर रहे हैं। जब उनमें प्यार हुआ था। जब कश्मीर में उनकी शादी हुई। जब उन्होंने अपने सपनों का घर ‘शिकारा’ बनाया। और जब एक रात सहमे हुए माहौल में उन्हें अपने घर, अपने कश्मीर से निकलने को मजबूर होना पड़ा-कभी न लौट कर आने के लिए।
वे कौन-से हालात थे जिनके चलते कश्मीरी मुसलमानों को ‘हम लेकर रहेंगे आज़ादी’ जैसे नारे लगाने पड़े? क्यों कश्मीरी पंडितों को वहां से ‘इंडिया’ जाने को कहा गया? क्यों नहीं ‘इंडिया’ की संसद में शोर मचा? कैसे कश्मीर के हालात बद से बदतर होते चले गए और कैसे तीस साल बीत जाने के बावजूद देश भर में शरणार्थी बने रह रहे कश्मीरी पंडितों की वापसी के लिए कोई आवाज़ नहीं उठी? यह फिल्म इन सवालों पर कोई बात ही नहीं करती। यह फिल्म कश्मीरी पंडितों की बात करती है। घाटी में सुलग रहे हालातों को भी दिखाती है। लेकिन यह सिर्फ मुद्दे को छू भर कर निकलती है। सही है कि एक फिल्मकार का काम किसी समस्या का हल सुझाना नहीं होता, लेकिन यह फिल्म तो समस्या को, उसके कारणों को, उसके विकराल रूप तक को दिखाने से बचती है। तो फिर क्यों देखा जाए इसे?
इसे देखा जाए शिव और शांति की प्रेम-कहानी के लिए। अपने भीतर कश्मीरियत को हमेशा ज़िंदा और जवां रखने वाला यह जोड़ा पर्दे पर इस कदर खूबसूरत लगा है कि इनसे मोहब्बत होने लगती है। नए कलाकारों आदिल खान और सादिया ने अपने किरदारों को इस तरह से निभाया है कि इनका पर्दे पर होना सुकून देता है। ज़ेन खान दुर्रानी और प्रियांशु चटर्जी के साथ बाकी के वे तमाम कलाकार भी विश्वसनीय लगे जिनके बारे में बताया गया कि वे कोई प्रोफेशनल कलाकार नहीं बल्कि असल कश्मीरी पंडित रिफ्यूजी ही हैं। इरशाद कामिल के गीत और संदेश शांडिल्य की धुनें दिल में मिठास भरती हैं। कश्मीरी लोकगीतों की झनक कानों को प्यारी लगती है। ए.आर. रहमान और उनके शिष्य कुतुब-ए-कृपा का बनाया संगीत फिल्म के असर को बढ़ाने का काम करता है।
राहुल पंडिता, अभिजात जोशी और विधु विनोद चोपड़ा इसे लिखते समय कुछ भी ‘कहने’ से बचे हैं। यही ‘गूंगापन’ ही इस फिल्म की सबसे बड़ी कमज़ोरी है। विधु अपने निर्देशन से असर छोड़ते हैं। कैमरा-वर्क अद्भुत है और सैट, लोकेशन बेहद प्रभावी। दो घंटे की होने के बावजूद कहीं-कहीं एडिटिंग ढीली है।
इस फिल्म को एक प्रेम-कहानी के तौर पर ही देखा जाना चाहिए। इससे यह उम्मीद लगाना बेकार है कि इसने कश्मीरी पंडितों की दुर्दशा दिखाई होगी। दुर्दशा तो छोड़िए, यह उनकी दशा तक को पूरी ईमानदारी से नहीं दिखा पाई।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-07 February, 2020
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)