• Home
  • Film Review
  • Book Review
  • Yatra
  • Yaden
  • Vividh
  • About Us
CineYatra
Advertisement
  • होम
  • फिल्म/वेब रिव्यू
  • बुक-रिव्यू
  • यात्रा
  • यादें
  • विविध
  • हमारे बारे में
No Result
View All Result
  • होम
  • फिल्म/वेब रिव्यू
  • बुक-रिव्यू
  • यात्रा
  • यादें
  • विविध
  • हमारे बारे में
No Result
View All Result
CineYatra
No Result
View All Result
ADVERTISEMENT
Home फिल्म/वेब रिव्यू

रिव्यू-उपेक्षा और अपेक्षा के बीच जूझती ‘कला’

CineYatra by CineYatra
2022/12/02
in फिल्म/वेब रिव्यू
0
रिव्यू-उपेक्षा और अपेक्षा के बीच जूझती ‘कला’
Share on FacebookShare on TwitterShare on Whatsapp

-प्रियंका ओम… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)

वह एक दिसंबर की शाम तनिक मेहरबान हो आई जब नेटफ्लिक्स पर रैंडम सर्च के दौरान ‘कला’ का पोस्टर दिख गया। ‘बुलबुल’ जैसी डिज़ास्टर फिल्म की निर्देशक अन्विता दत्त का नाम पढ़ कर हालांकि थोड़ी झिझक ज़रूर हुई लेकिन निर्माता के तौर पर अनुष्का शर्मा के नाम ने ‘प्ले’ क्लिक करवा कर ही दम लिया।

इससे पहले अनुष्का शर्मा की बांग्लादेश में कुचलित शैतानिक पंथ पर आधारित फिल्म ‘परी’ ने मुझे स्तब्ध किया था। मैं उनकी बूझ पर चौंक-सी गई थी। ऐसी ऑफबीट, नॉन-कमर्शियल फिल्म में पैसा लगा उन्हें क्या ही हासिल हुआ होगा? खैर, ‘परी’ इतनी पसंद आई थी कि मैं स्वयं को ‘कला’ देखने से रोक नहीं पाई।

दरअसल ‘कला’ उपेक्षा और अपेक्षा के मध्य द्वन्द्व की ऐसी मनोवैज्ञानिक कहानी कहती है जो आपको ठहर कर सोचने को विवश करती है। साधारण तरीके से देखने पर आप मोरल या सामाजिक संदेश इत्यादि में उलझ कर रह जाते हैं लेकिन एक संवेदनशील मनुष्य इस फिल्म की नायिका कला के दर्द से चूक नहीं सकता। मां के प्रेम-अभाव से जनित दर्द जिसकी अजस्र पीड़ा कला को अहर्निश तड़पाती है। ऊपर से देखने पर लगता है वह गायिका बन प्रसिद्धि पाना चाहती है जबकि वह सिर्फ अपनी मां का प्रेम चाहती है। वह चाहती है कि एक बार उसकी मां उसे अपने कलेजे से लगाए और कहे-‘कला, तुमने बहुत बेहतर किया।’ जबकि उसकी मां उसे बर्फ गिरती रात में घर के बाहर कर देती है। मां के क्रोध के साए में कलपती कला कभी संगीत की कला में दक्ष नहीं हो पाई और मां ने प्रखर, प्रवीण युवक को बेटा बना लिया। दरअसल मां कला नहीं, बेटा ही चाहती थी और कला को उसकी चाकरी में नियुक्त कर दिया जो उसे पुरुष की नज़र से देखता है। यह बात कला से भी छुपी नहीं।

कला को दुर्दम्य महत्वाकांक्षी कह निकृष्ट बताने की पुरुष कुंठा को समझना उतना मुश्किल नहीं है जितना तिरस्कार से उपजी कुंठा को जान लेना। स्त्री-देह होने की कुंठा, मां की तरह न हो पाने की कुंठा के बाद दत्तक भाई से कमतर होने की कुंठा, कला कुंठा का पुंज बन गई थी जो उसके भीतर विषबेल-सी चढ़ती जा रही थी।

दत्तक पुत्र द्वारा मृत पति की गायकी की परंपरा को आगे ले जाने हेतु मां के प्रपंचों से सीखती कला स्वयं को सिद्ध करने हेतु देह की सौदेबाजी तक से गुरेज नहीं करती। मां के प्रेम को तरसती, समझौते करती कला संगीत का सबसे बड़ा सम्मान तो हासिल कर लेती है किंतु तब भी मां के प्रेम से वंचित रह जाती है। मां मिलती भी है तो कब?

फिल्म शुरू होते ही आप तृप्ति डिमरी की अभिनय क्षमता से मोहविष्ट हो जाते हैं। शीर्षस्थ पक्व गायिका बरतते एक क्षण को भी कमज़ोर नहीं पड़ती। वहीं दूसरी ओर एक कमतर, कुंठित, स्थापित होने को लालायित कला के चेहरे के भाव उतने ही बेगुनाह हैं जितनी की वह खुद। पूरी फिल्म में ‘अपेक्षा और उपेक्षा के मध्य का द्वन्द्व भाव’ निरंतर बहता रहता है।

फिल्म का चलचित्रण इतना उत्कृष्ट है कि आप एक दृश्य भी स्किप नहीं करना चाहेंगे। कई दृश्य, कंपोज़िशन में इतने लुभावने बन पड़े हैं कि आप पॉज़ कर उन्हें निहारते हैं। फिल्म देखते हुए आप कला की पीड़ा से स्वयं को अलग नहीं रख पाते हैं। वह एक द्वन्द्व आपके भीतर भी अनवरत चलता है। आप मुक्त नहीं रह पाते, दृश्यों के साथ-साथ चलते हैं। आप भी कला के दुख में डूबते-उतराते हैं।

स्वास्तिका मुखर्जी कितनी ही मर्तबा मंदाकिनी होने का भ्रम पैदा करती हैं। कला का तिरस्कार करती मां से आप घृणा नहीं कर पाते। वह दृश्य-दर-दृश्य इतनी सहजता से अपनी पीड़ा का यकीन दिलाती जाती है कि आप अंततः कला को ही अपराधी मान लेते हैं।

कई दूसरे गीतों की धुन सुनाई के देने के बावजूद गीत-संगीत की मिठास जुबां पर घुल सी गई है।

(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)

Release Date-01 December, 2022 on Netflix

(प्रियंका ओम इस्पात नगरी जमशेद पुर की रहने वाली हैं। फिलहाल भारतभूमि से परे पूर्वी अफ्रीका के देश तंजानिया में रहती हैं और हिन्दी में फौलादी लेखन करती हैं। उनके दो कहानी संग्रह ‘वो अजीब लड़की’ और ‘मुझे तुम्हारे जाने से नफरत है’ आ चुके हैं।)

Tags: abhishek banerjeeamit sialbabil khansameer kochharswanand kirkireswastika mukherjeetripti dimrivarun grover
ADVERTISEMENT
Previous Post

बुलंद वादों-इरादों के साथ विदा हुआ 53वां इफ्फी

Next Post

रिव्यू-रोमांचक और मनोरंजक ‘एन एक्शन हीरो’

Related Posts

वेब-रिव्यू : मार्निंग शो वाले सिनेमा का सेलिब्रेशन ‘मरते दम तक’
CineYatra

वेब-रिव्यू : मार्निंग शो वाले सिनेमा का सेलिब्रेशन ‘मरते दम तक’

रिव्यू-मसालेदार मज़ा देता है ‘पठान’
CineYatra

रिव्यू-मसालेदार मज़ा देता है ‘पठान’

रिव्यू-क्रांति और भ्रांति के बीच फंसी ‘छतरीवाली’
CineYatra

रिव्यू-क्रांति और भ्रांति के बीच फंसी ‘छतरीवाली’

रिव्यू-बिना वर्दी वाले जवानों का ‘मिशन मजनू’
CineYatra

रिव्यू-बिना वर्दी वाले जवानों का ‘मिशन मजनू’

वेब-रिव्यू : उस मनहूस दिन के बाद का संघर्ष दिखाती ‘ट्रायल बाय फायर’
CineYatra

वेब-रिव्यू : उस मनहूस दिन के बाद का संघर्ष दिखाती ‘ट्रायल बाय फायर’

रिव्यू-इस हमाम में सब ‘कुत्ते’ हैं
फिल्म/वेब रिव्यू

रिव्यू-इस हमाम में सब ‘कुत्ते’ हैं

Next Post
रिव्यू-रोमांचक और मनोरंजक ‘एन एक्शन हीरो’

रिव्यू-रोमांचक और मनोरंजक ‘एन एक्शन हीरो’

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

  • होम
  • फिल्म/वेब रिव्यू
  • बुक-रिव्यू
  • यात्रा
  • यादें
  • विविध
  • हमारे बारे में
संपर्क – [email protected]

© 2021 CineYatra - Design & Developed By Beat of Life Entertainment.

No Result
View All Result
  • होम
  • फिल्म/वेब रिव्यू
  • बुक-रिव्यू
  • यात्रा
  • यादें
  • विविध
  • हमारे बारे में

© 2021 CineYatra - Design & Developed By Beat of Life Entertainment.