–दीपक दुआ…
1991 का बरस था। नवंबर का महीना। बी.कॉम का दूसरा साल। सिनेमा में अपनी दिलचस्पी जोर पकड़ चुकी थी। खासतौर से लीक से कुछ हट कर बनने वाली फिल्मों के प्रति अपना खासा लगाव था। 29 नवंबर को नाना पाटेकर के निर्देशन में ‘प्रहार’ रिलीज हुई। ‘जनसत्ता’ में श्रीश जी की लिखी समीक्षा पढ़ने के बाद दो-एक दोस्तों से यह फिल्म देखने के लिए पूछा। कोई राज़ी नहीं हुआ तो 5 दिसंबर, गुरुवार को अकेले ही जा पहुंचा। फिल्म देख कर निकला तो सिर भन्ना रहा था। सिनेमा के पर्दे पर अपने ‘सभ्य’ समाज की ऐसी स्याह तस्वीर ने मुझे अंदर तक हिला दिया। उस रात नींद नहीं आई। आई भी तो भीतर ‘प्रहार’ चल रही थी।
इसके एक हफ्ते तक मैं कॉलेज नहीं गया। गया तो अर्थशास्त्र की क्लास में पंगा हो गया। मैडम ने अपने लेक्चर में पता नहीं किस संदर्भ में ‘प्रहार’ के उस आखिरी सीन की आलोचना कर दी जिसमें बहुत सारे बच्चे नंगे बदन दिखाई देते हैं। अपने से रहा नहीं गया और उस सीन के पक्ष में पता नहीं क्या-क्या बोल गया। यह भी कि वे बच्चे नंगे नहीं बल्कि एक समान हैं, बराबरी पर खड़े हैं और एक स्वस्थ समाज का यही फर्ज़ है कि वह सबको बराबरी पर लाए और एक साथ आगे बढ़ने का मौका दे। बाकी बच्चों से पीछे रह गए दो बच्चों को रुक कर अपने साथ ले चलते हुए नाना पाटेकर फिल्म में यही तो कर रहे हैं। क्लास में सन्नाटा छा चुका था। मैडम मेरा मुंह तक रही थीं। फिर वह हैरान हो कर पूछ बैठीं-तुम सचमुच कॉमर्स के ही स्टूडेंट हो न…? ऊपर से तो मैंने ‘जी हां’ ही कहा, लेकिन अंदर ही अंदर मुझे भी लगने लगा था कि अब मेरी दिशा कुछ और है। सिनेमा मेरे जेहन पर वह प्रहार कर चुका था जिससे बचना अब मेरे लिए नामुमकिन था।
तब से अब तक सैंकड़ों फिल्में देखीं… शायद हज़ारों। मगर ‘प्रहार’ आज भी मेरे जेहन से उतरती नहीं है। ऐसे ही किसी वक्त मन में यह भी आया था कि कभी अपने बच्चों को यह फिल्म दिखाऊंगा। अभी बेटे को यह फिल्म दिखाई। बीच में रोक-रोक कर संदर्भ भी समझाए। 14 साल की उम्र में वह इसे कितना समझ पाया होगा, कह नहीं सकता। बीज रोपना मेरा काम था, कर दिया। ‘प्रहार’ के ही एक गीत के बोलों में कहूं तो ‘जिन पर है चलना नई पीढ़ियों को, उन्हीं रास्तों को बनाना हमें है…!’
Article Date-21 May, 2018
(फिल्म ‘प्रहार’ पर मेरे बनाए ऑडियो-एपिसोड का लिंक)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
जितनी गजब की फिल्म थी उतनी ही गजब की समीक्षा फिल्म की भी और आपके जीवन की भी
धन्यवाद कमल जी… सब नियति निर्धारित है…
बहुत अच्छा लगा पढ़कर की कैसे इस फ़िल्म से आप प्रभावित हुए।सर इस फ़िल्म में हबीब तनवीर साहब ने भी अभिनय किया है। मैंने उनके निर्देशन में थिएटर किया है।।।अच्छा लगा ये लेख पढ़कर
शुक्रिया संदीप भाई… जी हां, हबीब तनवीर साहब इसमें नायक गौतम जोगलेकर के पिता मिस्टर डिसूज़ा के किरदार में थे… मैंने पहली बार ही उन्हें देखा था, कैसे वह अपने हौले-से बोले गए संवादों और हल्की-सी जुंबिश से ही अपनी पूरी बात कह जाते थे… आप सौभाग्यशाली हैं, जो आपने उनके साथ काम किया…