-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
दिल्ली का एक पॉश क्लब। कई नामी लोग हैं यहां। तभी यहां एक लाश मिलती है। क्लब के जिम ट्रेनर लियो की लाश। पहली नज़र में लगता है कि उसके साथ हादसा हुआ है। लेकिन ए.सी.पी. भवानी सिंह कहता है कि यह मर्डर है, सोच-समझ कर किया गया मर्डर, क्योंकि लियो इस क्लब के लगभग हर सदस्य को किसी न किसी कारण से ब्लैकमेल कर रहा था। ज़ाहिर है कि शक की सुई हर किसी की तरफ है। मगर कौन है असली कातिल? क्या कारण है कत्ल का? नेटफ्लिक्स पर आई यह फिल्म ‘मर्डर मुबारक’ इसी गुत्थी को दिखाती है।
किसी एक जगह कत्ल और शक वहां मौजूद कई लोगों पर-इस किस्म की ‘गुमनाम’ सरीखी कहानियां हम दशकों से देखते आए हैं। ऐसी कहानियों में अक्सर कातिल वही होता है जिस पर सबसे कम शक हो, या बिल्कुल भी न हो। कातिल तक पहुंचने की रोचक, रोमांचक यात्रा ही ऐसी फिल्मों को दर्शनीय बनाती है।
इस फिल्म की कहानी अनुजा चौहान के अंग्रेज़ी उपन्यास ‘क्लब यू टू डैथ’ पर आधारित है। अनुजा बढ़िया लिखती हैं। उनके उपन्यास ‘द ज़ोया फैक्टर’ पर इसी नाम से सोनम कपूर वाली फिल्म आई थी जो फ्लॉप हुई थी। इस उपन्यास में अनुजा इस कत्ल और कातिल की तलाश के बहाने से सोसायटी के ऊंचे, नामी, प्रतिष्ठित लोगों की ज़िंदगियों के खोखलेपन और स्याह पक्षों में झांकने की सफल कोशिश करती हैं।
(रिव्यू-एंटरटेनमैंट की पिच पर चला ट्रैक्टर-‘द ज़ोया फैक्टर’)
हालांकि उपन्यास की कहानी पर फिल्म की स्क्रिप्ट तैयार करते समय गज़ल धालीवाल और सुप्रतिम सेनगुप्ता ने इसे रोचक व रहस्यमयी बनाने की भरपूर कोशिशें की हैं लेकिन ये लोग हर जगह सफल नहीं हो पाए हैं। इसकी पहली वजह तो यह है कि इस कहानी में भीड़ बहुत है। कई सारे किरदार न तो खुल कर दिख सके और न ही उठ सके। सवा दो घंटे में कहानी को समेटने के फेर में यह कन्फ्यूज़ ज़्यादा करती है। कौन, कब आकर, क्या करके निकल लेता है, यह दिमाग में बैठने से पहले ही कोई और किरदार, कुछ और करने आ जाता है। होमी अदजानिया का निर्देशन ‘अलग किस्म’ का रहता है जो हर किसी को नहीं लुभा पाता। कई जगह संवाद ऐसे बुदबुदा कर बोले गए हैं कि समझ ही नहीं आते। बेहतर होता कि इस कहानी को इतना गाढ़ा करने की बजाय इसे लंबा खींच कर इस पर कई एपिसोड वाली सुलझी हुई वेब-सीरिज़ बनाई जाती।
किरदारों की भीड़ है तो कलाकारों की भी भीड़ है। इस चक्कर में किसी को कुछ खास दिखाने का मौका ही नहीं मिल पाया। पंकज त्रिपाठी हमेशा की तरह जंचे हैं। लेकिन विनम्र, धीमे बोलने वाले, देसी, हिन्दी वाले सहज किस्म के किरदार में उनके लिए भला क्या चुनौतीपूर्ण रहा होगा, वह तो असल में भी ऐसे ही हैं। बेहतर होता कि उनके किरदार को उनकी असल पर्सनैलिटी से परे ले जाया जाता। सारा अली खान बिल्कुल भी नहीं जंचीं। डिंपल कपाड़िया भी झल्ली-सी लगीं। संजय कपूर, ग्रूशा कपूर, टिस्का चोपड़ा, आशिम गुलाटी, विजय वर्मा, देवेन भोजानी और न जाने कौन-कौन ठीक-ठाक ही रहे। करिश्मा कपूर को वेस्ट किया गया। एक किरदार जो फिल्म खत्म होने के बाद भी असर छोड़ गया वह था गप्पी राम का जिसे बृजेंद्र काला ने खूब निभाया।
लोकेशन, कैमरा, लाइट्स और बैकग्राउंड म्यूज़िक फिल्म को सूट करते हैं। गाने चलताऊ किस्म के हैं। खासतौर से बेटी की विदाई पर गाए जाने वाले पंजाबी लोक-गीत ‘मधानियां…’ को हर थोड़ी देर में पार्श्व में बजाने का कोई अर्थ नज़र नहीं आता। अर्थ तो इस फिल्म के नाम का भी कोई नज़र नहीं आता। बस, पब्लिक को लुभाना है। फुर्सत हो तो देख लीजिए, फिर बताइएगा, कैसी लगी।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-15 March, 2024 on Netflix
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Apka review padte huye Aisa lgata h ki movie live chal rhi h
To time pass ke liye to movie bdia h 👍
धन्यवाद…