-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
विनायक दामोदर सावरकर के बारे में अलग-अलग लोगों की अलग-अलग राय हो सकती है। लेकिन सवाल यह है कि ये राय बनीं कैसे? क्या सावरकर के बारे में आज़ाद भारत के लोगों को पूरी और सही जानकारी दी गई? क्या उनके विचारों, उनकी लिखी किताबों का उस तरह से प्रसार किया गया जैसा कुछ दूसरे लोगों के साथ हुआ? क्या सिर्फ कुछ ‘दूसरे’ लोग ही महान थे और सावरकर ने भारत के लिए कुछ नहीं किया? किया, तो उसके बारे में हम-आप कितना जानते हैं? यह फिल्म हमें वही जानकारी देने आई है।
‘स्वातंत्र्य वीर सावरकर’ फिल्म दिखाती है कि कैसे ब्रिटिश हुकूमत भारतवासियों पर अत्याचार कर रही थीं और लोग कैसे अलग-अलग तरीकों से विरोध कर रहे थे। गांधी और नेहरू से काफी पहले सावरकर ने अपने भाई गणेश के साथ मिल कर सशस्त्र क्रांति का रास्ता चुना और साथ ही कानून की पढ़ाई करके अंग्रेज़ों को टक्कर देने की रणनीति अपनाई ताकि 1912 तक वह भारत को आज़ाद करवा सकें। कैसे वे अंग्रेज़ों के अन्याय के शिकार हुए और अंडमान में काला पानी की जेल में ठूंस दिए गए जहां उनके भाई गणेश पहले से ही मौजूद थे। वहां 50 साल की सज़ा में सड़ कर मरने की बजाय उन्होंने अंग्रेज़ी हुकूमत को दया-याचिकाएं लिखीं और बाहर आए लेकिन उसके बाद भी न तो अंग्रेज़ों ने और न ही यहां के कुछ नेताओं ने उन्हें चैन से जीने दिया। फिल्म यह भी दिखाती है कि हिन्दुत्व और भारत के विभिन्न धर्मों के बारे में उनके क्या विचार थे। कैसे उनके विचार, उनकी गतिविधियां इतनी अधिक खतरनाक थीं कि उन्हें दो-दो आजीवन कारावास दिए गए और अंडमान में उनके समेत दूसरे क्रांतिकारियों पर कैसे-कैसे अत्याचार किए गए। सच तो यह कि यह फिल्म इतना कुछ दिखाती और लिख कर भी बताती है जिसे एक बार में ग्रहण करना मुश्किल है।
‘स्वातंत्र्य वीर सावरकर’ फिल्म अपनी शुरुआत में कुछ पल के लिए अबूझ लगती है। लेकिन धीरे-धीरे यह साकार होने लगती है, रफ्तार पकड़ने लगती है और वह कहने लगती है जिसके लिए इसे बनाया गया है। मुमकिन है इस ‘कहन’ से कइयों को आपत्ति हो, लेकिन फिल्म जिस अंदाज़ में सारी बातें कहती-दिखाती और बताती है, उससे यह गहरा असर छोड़ पाने में सफल हुई है। कहीं रिचर्ड एटनबरो की ‘गांधी’, कहीं प्रियदर्शन की ‘काला पानी’ तो कहीं शुजित सरकार की ‘सरदार उधम’ सरीखे कलेवर लिए यह फिल्म अपने तेवर नहीं छोड़ती और सावरकर के बारे में बताते हुए यह उनके समय के दूसरे नेताओं, क्रांतिकारियों के विचारों और उनकी गतिविधियों को भी दिखाती है। यह फिल्म बताती है कि कैसे इस देश के नौजवान कच्ची उम्रों में फांसी के फंदे चूम रहे थे और कैसे कुछ लोग उन्हें ‘कायर, भटके हुए, आतंकवादी, बम-गोले वाले’ कह कर उनके बलिदानों को कमतर कर रहे थे।
(रिव्यू-गर्व कीजिए ‘सरदार उधम’ पर)
उत्कर्ष नैथानी और रणदीप हुड्डा ने इस फिल्म को लिखने में, इस पर रिसर्च करने में जो मेहनत की है, वह ‘स्वातंत्र्य वीर सावरकर’ देखते हुए पल-पल महसूस होती है। फिल्म के संवाद कई जगहों पर मारक हैं और किसी को चुभने तो किसी को प्रसन्न करने के अपने मकसद में सफल होते हैं। पहली बार निर्देशक बने रणदीप हुड्डा ने ऐसा सधा हुआ डायरेक्शन दिया है कि उनके काम पर हैरान हुआ जा सकता है। कास्ट्यूम और प्रोडक्शन वालों की भरपूर मेहनत तो दिखती ही है, कैमरा संभालने वाले अरविंद कृष्णा की खासतौर पर तारीफ होनी चाहिए जिन्होंने कैमरे और लाइट्स से कई यादगार विज़ुअल्स पर्दे पर उकेरे हैं।
‘स्वातंत्र्य वीर सावरकर’ फिल्म में रणदीप हुड्डा ने विनायक सावरकर के किरदार को पाने के लिए जो मेहनत की है, वह पर्दे से उतर कर आपके अंतस को छूती है। साफ लगता है कि उन्होंने न सिर्फ शरीर से बल्कि दिल, दिमाग और आत्मा से इस किरदार को अपने भीतर जगह दी है। महानतम अभिनय है रणदीप का। गणेश सावरकर बने अमित स्याल, विनायक की पत्नी यशोदा बनीं अंकिता लोखंडे क्या खूब प्रभावशाली रहे। गांधी बने राजेश खेरा, लोकेश मित्तल, ब्रजेश झा, संतोष ओझा, जय पटेल व अन्य सभी का काम भी प्रशंसनीय है। गीत-संगीत ठीक रहा लेकिन बैकग्राउंड म्यूज़िक ने खासा असर छोड़ा।
कहीं-कहीं इतिहास की क्लास सरीखी लगने वाली ‘स्वातंत्र्य वीर सावरकर’ फिल्म काफी लंबी है, तीन घंटे की। लेकिन फिर लगता है कि जितना इतिहास छुपाया-दबाया गया, उसे बताने के लिए तो शायद तीन जन्म भी कम पड़ जाएं। इस कहानी को और अधिक विस्तार देकर कोई वेब-सीरिज़, कोई धारावाहिक भी आना चाहिए ताकि लोग देखें, जानें और समझें कि भारत की जड़ों में किस-किसने अपने खून-पसीने की खाद दी है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-22 March, 2024 in theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
दीपक मित्र है कलम के धनी हमेशा रहे है जब से पूर्णरूप से आलोचक बने है तब से उनमें निरन्तर सुधार हुआ है 99% उनके review किसी के दवाब में प्रतीत नही होते। ये अपने आप में आज के समय की सबसे बड़ी तपस्या है । वरना अच्छा लिखने वालो के पास गिद्ध मंडराने लगते है निश्चय ही उनको भरमाने की कोशिश लगातार जारी होगी। अपना बचाव तो उन्हें ही करना है । लिखते रहीए सटीक होते रहीए।
धन्यवाद भाई साहब…