-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
मुंबईकर-बोले तो मुंबई शहर का वासी, बाशिंदा। जैसे इंदौर वाले इंदौरी कहलाते हैं, लाहौर वाले लाहौरी, वैसे ही मुंबई वाले मुंबईकर। तो यह कहानी है कुछ मुंबईकरों की। कहानी नहीं, असल में कहानियां हैं। मुंबई का एक लड़का अपनी मर्ज़ी से बेरोज़गार है। अपनी दोस्त के पीछे पड़े गुंडों को वह सबक सिखाना चाहता है। किसी दूसरे राज्य से आए एक लड़के को कुछ गुंडे लूट लेते हैं। बिना डॉक्यूमैंट्स के उसे नौकरी नहीं मिलेगी। एक आदमी इस शहर में डॉन बनने आया है लेकिन गलती से वह एक डॉन के बेटे को उठा लेता है। इनके अलावा इन कहानियां में एक टैक्सी ड्राईवर भी है, पुलिस वाले भी हैं, कुछ और लोग भी हैं और ये सब लोग आपस में कहीं न कहीं एक-दूसरे से जुड़ भी रहे हैं।
इस किस्म की फिल्मों को ‘हाइपरलिंक’ श्रेणी की फिल्में कहा जाता है। यानी अलग-अलग किरदारों की अलग-अलग कहानियां जो कहीं न कहीं एक-दूसरे को काट रही हैं, छू रही हैं, मिल रही हैं। मनोज वाजपेयी वाली ‘ट्रैफिक’ सन्न कर देती है ‘ट्रैफिक’ अगर याद हो तो वह भी हाइपरलिंक श्रेणी की ही फिल्म थी। यह फिल्म 2017 में आई लोकेश कनगराज निर्देशित तमिल फिल्म ‘महानगरम’ का रीमेक है जिसे प्रख्यात सिनेमैटोग्राफर संतोष सिवान ने डायरेक्ट किया है। उस फिल्म में चैन्नई शहर था और यहां मुंबई की पृष्ठभूमि है।
महज़ 24 घंटे में कुछ किरदारों के साथ हो रही घटनाओं पर बनी फिल्में कसी हुई और तेज़ रफ्तार होती हैं। होनी भी चाहिएं, तभी ये दर्शकों को मज़ा दे पाएंगी। यहां भी सब कुछ फटाफट हो रहा है लेकिन स्क्रिप्ट लिखने वाले कहीं-कहीं गच्चा खा गए और दर्शकों को गच्चा दे बैठे। पहले तो इनसे कायदे के स्पष्ट किरदार ही खड़े नहीं हो सके। फिर ये अपने किरदारों को दमदार नहीं बना सके। न ही उन घटनाओं को ये गहराई दे पाए जिनसे होकर ये किरदार गुज़र रहे हैं। डॉन बनने आया आदमी डॉन क्यों बनने आया है, क्यों वापस जा रहा है, कोई तो बताए। और रही मुंबई शहर की आत्मा की बात, तो मोटे तौर पर यह फिल्म मुंबई शहर को एक डरावनी जगह और यहां के रहवासियों यानी मुंबईकरों को निगेटिव शेड में दिखाती है। देखना चाहेंगे…?
विक्रांत मैस्सी जैसे सधे हुए एक्टर को ऐसा कमज़ोर रोल लेना ही नहीं चाहिए था। विजय सेतुपति ने अपनी कमज़ोर भूमिका को अपने दम पर संभाला। तान्या माणिकटाला प्यारी लगीं, हृधु हारून सॉफ्ट रहे, रणवीर शौरी खूब जंचे। लेकिन इन सभी के किरदार और सशक्त हो सकते थे। सचिन खेडेकर, बृजेंद्र काला, संजय मिश्रा आदि अपने काम को ईमानदारी से कर गए। अलबत्ता संवाद सपाट रहे।
बतौर निर्देशक संतोष सिवान की अपनी एक अलग यात्रा रही है जिसमें उन्होंने कुछ हटके किस्म की फिल्में बनाई हैं। लेकिन इस फिल्म का निर्देशन उन्होंने क्या सोच कर स्वीकारा, यह स्पष्ट नहीं हो पाता। बेहतर होता कि मूल निर्देशक ही इसे बनाते। दरअसल कभी चलती, कभी रुकती स्क्रिप्ट और ढीली एडिटिंग ने इस फिल्म को दिल में उतरने ही नहीं दिया। टाइमपास के लिए देखना चाहें तो जियो सिनेमा पर इस फिल्म को मुफ्त में देखने के लिए यहां क्लिक करें।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-02 June, 2023 on Jio Cinema
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Excellent
thanks…
फ़िल्म का रिव्यु पढ़कर फ़िल्म को ज़रूर देखना चाहूंगा. क्यूंकि नया कांसेप्ट “हाइपरलिंक” श्रेणी फ़िल्म का होना।