-दीपक दुआ…
1989 की बात है। पश्चिम बंगाल के रानीगंज की एक कोयला खदान में पानी भर जाने से 65 मज़दूर ज़मीन के नीचे फंस गए थे। उन तक पहुंचने के पारंपरिक तरीकों से हट कर तब एक इंजीनियर जसवंत सिंह गिल ने ज़मीन में सीधा छेद कर उसमें छह फुट लंबा एक लोहे का कैप्सूल उतारा था जिसके अंदर एक आदमी सीधा खड़ा हो सकता था। उस कैप्सूल की मदद से एक-एक करके सब मज़दूरों को ऊपर सही-सलामत लाया गया। जसवंत सिंह को तब ‘कैप्सूल गिल’ कहा जाने लगा था। आज भी हर साल 16 नवंबर को कोल इंडिया कंपनी उस दिन को उत्साह से मनाती है। यह फिल्म उन्हीं जसवंत सिंह गिल द्वारा उस हादसे के समय दिखाए गए जुझारूपन को पूरी शिद्दत से दिखाती है।
फिल्म अपनी शुरुआत में ही कोयला खदानों का हल्का-सा परिचय देने के बाद हमें सीधे सभी प्रमुख पात्रों से मिलवा देती है। कुछ ही मिनट में वह हादसा होता है जब खदान में पानी भरने लगता है और यहां से शुरू होकर फिल्म न तो कहीं थमती है और न ही हमें अपने से दूर होने देती है। यह इसकी स्क्रिप्ट की खासियत ही कही जाएगी जो दर्शकों को कस कर बांधे रखती है। हर किरदार की खूबी को इसमें तरतीब से बताया और महसूस करवाया गया है। एक तरफ जहां ज़मीन के नीचे फंसे लोगों की सोच और व्यवहार हमें दिखाई देते हैं वहीं ज़मीन पर उनके परिवार की मनोदशा, खदान के अफसरों की कोशिशें, उन कोशिशों के पीछे की अच्छी और बुरी सोच का फर्क भी यह हमें बखूबी दिखा पाती है। ‘रुस्तम’ जैसी फिल्म और ‘फिल्म की कहानी कैसे लिखें’ जैसी किताब लिख चुके पटकथा लेखक विपुल के. रावल अपनी स्क्रिप्ट के सधेपन से दिल जीतने का काम करते हैं। खास बात यह भी है कि वह हर किरदार को बराबर महत्व देते हुए कहानी को कहीं भी बोझिल नहीं होने देते और इसमें इमोशन्स का प्रवाह भी लगातार बनाए रखते हैं।
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निर्देशक टीनू सुरेश देसाई ‘रुस्तम’ के लंबे समय बाद यह फिल्म लेकर आए हैं। उनकी मेहनत इसमें नज़र आती है। ऐसी फिल्म में जिस किस्म का तनाव ज़रूरी होता है, उसे वह हादसे के साथ ही रचना शुरू कर देते हैं और अंत आते-आते ऐसा लगने लगता है जैसे आप कोई फिल्म नहीं देख रहे बल्कि रानीगंज के उस मैदान में खड़े उन लोगों की भीड़ में शामिल हैं जिन्होंने उस रेस्क्यू मिशन को अपनी आंखों के सामने घटते देखा था। हालांकि कुछ एक जगह कम्प्यूटर ग्राफिक्स काफी हल्के किस्म के हैं और कहीं-कहीं विस्तार की कमी भी झलकती है लेकिन इससे फिल्म की मौलिकता पर असर नहीं पड़ता और यह आपके दिल-दिमाग में जगह बना पाने में कामयाब रहती है।
(पहले भी पर्दे पर आ चुकी है ‘रुस्तम’ की कहानी)
किसी आपदा के समय कैसे कुछ लोग वहां जायज़ा नहीं ज़ायका लेने पहुंचते हैं, कैसे कुछ लोगों का ध्यान उस आपदा को अपने लिए कमाई का अवसर बनाने की तरफ होता है, कैसे कुछ लोग सिर्फ और सिर्फ बचाव पर ध्यान दे रहे होते हैं, कैसे कुछ लोग एक-एक पल किसी अपने का इंतज़ार करते हुए घुट रहे होते हैं, कैसे कुछ लोग सप्पोर्ट बन कर खड़े होते हैं और कैसे कुछ लोग धैर्य का बाना पहन कर सिर्फ लक्ष्यसिद्धि की ओर बढ़ रहे होते हैं, इन तमाम इंसानी भावों को यह फिल्म हमें दिखा पाने में कामयाब रहती है।
(बुक रिव्यू : ‘फिल्म की कहानी कैसे लिखें’-बताती है यह किताब)
फिल्म के किरदार इसकी खासियत हैं और उन्हें निभाने वाले कलाकार इसकी पूंजी। अक्षय कुमार इस बार ‘अक्षय कुमार’ नहीं बल्कि जसवंत सिंह गिल लगे हैं। उनके अभिनय की सहजता मोह लेती है। उनकी पत्नी के किरदार में परिणीति चोपड़ा कुछ ही सीन में आने के बावजूद बहुत प्यारी, बहुत प्रभावी लगी हैं। उनका किरदार यह भी बताता है कि मोर्चे पर काम कर रहे लोगों का असली सप्पोर्ट सिस्टम उनके घरों में होता है। अक्षय और परिणीति की जोड़ी ‘केसरी’ की याद दिलाती है। अक्षय का साथ निभाने वाले दोस्त बने पवन मल्होत्रा चंद दृश्यों में गहरा असर छोड़ते हैं। कुमुद मिश्रा, शिशिर शर्मा, अनंत महादेवन, आरिफ ज़कारिया, राजेश शर्मा, वीरेंद्र सक्सेना आदि के अलावा निगेटिव किरदार में दिब्येंदु भट्टाचार्य भी उभर कर दिखाई देते हैं। रवि किशन, जमील खान, वरुण वडोला, बचन पचहरा, सुधीर पांडेय, ओंकार दास माणिकपुरी, मुकेश भट्ट व अन्य कलाकार भी अपनी छाप छोड़ पाने में कामयाब रहे हैं। यहां तक कि एक कुत्ता भी कहानी का अहम पात्र हो जाता है।
फिल्म की रियल लोकेशन इसका असर गाढ़ा करती है। कैमरा और संपादन इसे निखारते हैं। गीत-संगीत अच्छा है, खासतौर से बैकग्राउंड म्यूज़िक तनाव में बढ़ोतरी करता है। सतिंदर सरताज का ‘चांदनी ने पुन्नेया ते जलसा लगाया…’ गैर पंजाबियों को समझ भले न आए लेकिन मन भर भाता ज़रूर है। अंत में ‘नानक नाम जहाज है…’ का आना भावुक कर देता है।
भावुक करने वाले पल तो इस फिल्म में बहुत सारे हैं। इसे देखते हुए कई बार आंखें नम होती हैं, कुछ बूंदें भी छलक उठती हैं। पर्दे से छलकता भावनाओं का रोमांच इस फिल्म की ताकत है जो बताता है कि आड़े वक्तों में जिन लोगों ने धैर्य धारण करते हुए मज़बूत इरादों से कदम उठाए हैं, वही मानव इतिहास में अपने लिए जगह बना पाए हैं।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-06 October, 2023 in theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
सही है, अब देखुगा इसे
रिव्यु के टाइटल को पढ़कर कल बीते संडे को इस मूवी को देखा और जैसा टाइटल है वैसी ही मूवी भी है… स्टार्टिंग से लेकर एन्ड तक सांस रोककर जो मूवी देखी जाती हैँ वो विरली ही होती है और ये उन विरली मूवी में से एक है… रिव्यु इतना डिस्क्रिपेटिव है कि पढ़कर लगता है कि मानो सामने ही मूवी चल रही हो और पढ़ने वाला एक दर्शक है…
अक्षय कुमार जी के काम की सराहना जितनी की जाय उतनी कम है… इस मूवी में इतना अच्छा काम होना मूवी की पूरी टीम को जाता है… दिल को सुकून पहुँचाने वाला म्यूजिक, कानो को विस्मित करते संस्कारी डायलॉग, वास्तविकता को दिखाता ग्राफिक और लोकेशन और इन सभी को निपुणता से निभाने वाले सभी आर्टिस्ट (हीरो, विलेन और बाकी अन्य )…
जो मूवी एक रियल स्टोरी पर बनी होती हैँ वो वाकई अच्छी होती हैँ जैसे कि “लगान” आदि… और इन. मूवी कि सफलता इसी मैं होती है कि आटे में नमक वाला तड़का तो चल जाता है लेकिन जहाँ उल्टा हुआ तो ओंधे मुँह नीचे गिर जाती हैँ…
जिस तरह की ये मूवी है इसको देखकर लगता है कि शायद बॉलिवुड अपने सही ट्रैक पर आ रहा है वरना “स्टोरी…. और डायरी” वाले टाइटल की मूवी अब इस फ़िल्म जगत की एक ऐसी ऐसी पहचान बनती जा रही है जो बॉलीवुड को एक राजनैतिक मंच पर ले जा रहा है…
अगले साल इस मूवी को यक़ीनन राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार में कई केटेगरी में अव्वल आने पर प्राइजस मिलना तो तय है..
फ़िल्म वाकई साढ़े चार स्टार रेटिंग की है…