-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
2004 की बात है। अपने यहां की खुफिया एजेंसी ‘रॉ’ का एक गद्दार अफसर रातोंरात गायब हो गया। वह भी तब, जब एजेंसी वाले महीनों से उस पर नज़रें गड़ाए बैठे थे कि उसे रंगे हाथों पकड़ना है। वह अमेरिकी खुफिया एजेंसी सी.आई.ए. के लिए काम कर रहा था और वे लोग ही उसे अमेरिका ले गए। इस घटना पर रॉ से रिटायर हुए अमर भूषण ने एक जासूसी उपन्यास ‘एस्केप टू नोव्हेयर’ लिखा जो काफी पसंद किया गया था। 2012 में आए इस उपन्यास में पात्रों के नामों को छोड़ कर लगभग सब सच था। अब उसी उपन्यास पर विशाल भारद्वाज ने नेटफ्लिक्स के लिए यह फिल्म ‘खुफिया’ बनाई है जिसमें उन्होंने पात्रों के नाम तो उपन्यास से ही लिए हैं लेकिन उसके अलावा ‘अपना’ भी बहुत कुछ घुसा डाला है और यही कारण है कि यह फिल्म जितना अपने मूल ट्रैक पर रहती है, उतना ही यहां-वहां भी भटकती है। यह भटकाव यदि सही हो तो भी स्वीकार है लेकिन यहां तो विशाल की ‘अतिबुद्धिमता’ के चलते ऐसे-ऐसे सीक्वेंस हैं कि चीज़ें सुहाती कम और अखरती ज़्यादा हैं।
खुद विशाल बताते हैं कि उन्होंने इस फिल्म की कहानी एक पुरुष अफसर को ध्यान में रख कर लिखी थी लेकिन जब कोई हीरो इसे करने को राज़ी नहीं हुआ तो उन्होंने कहानी में पुरुष की जगह महिला कर दी और इस तरह से तब्बू इस फिल्म में आईं। चलिए, यहां तक तो ठीक था। तब्बू अच्छी अदाकारा हैं और उन्होंने अपना किरदार बखूबी निभाया भी है लेकिन तब्बू के आने के बाद कहानी में जो बदलाव किए गए, जिस तरह से उनका अपने पति के साथ अलगाव, अपने बेटे के साथ मुटाव और एक दूसरी औरत के साथ समलैंगिकता वाला लगाव दिखाया गया, वह मूल कहानी का हिस्सा तो नहीं ही रहा होगा। बस, इसी ‘अतिबुद्धिमता’ के चलते ही विशाल का काम ‘अच्छा’ भले लगे, ‘अपना’ नहीं लगता।
कहानी बांग्लादेश से शुरू होती है फिर दिल्ली आती है। लेकिन इस दौरान इस कहानी में इतना ज़्यादा दिल्ली-ढाका होता है कि उसे समझने के लिए दिमाग के घोड़ों की लगाम हमेशा कस कर पकड़नी होती है और फिर भी यह इतनी बार आगे-पीछे जाती है कि तार छूटते दिखाई देते हैं। एक आम दर्शक ऐसी फिल्मों में जिस मनोरंजन को तलाशने जाता है वह बेचारा इधर-उधर झूलता ही रहता है कि मनोरंजन को पकड़े या टाइमलाइन की टेंशन को।
हालांकि फिल्म में गहराई है। खुफिया एजेंसियों के काम करने के तौर-तरीकों के साथ-साथ यह उनमें काम कर रहे लोगों की सोच को भी सामने लाती है कि किस तरह से ये लोग एक बड़े फायदे के लिए किसी की मौत जैसा छोटा नुकसान भी हो जाने देते हैं। फिल्म के संवाद इसकी जान हैं जो इस पूरी फिल्म के तेवर को थामे रहते हैं। लेकिन फिल्म की पटकथा में कुछ झोल भी हैं जो आसानी से हज़म नहीं होते। गद्दार अफसर का साथ उसके परिवार में जो व्यक्ति दे रहा है, वह साथ दे ही क्यों रहा है? उसे तो कोई फायदा होता नहीं दिखाया गया? वह अफसर गद्दार कैसे बना, क्यों बना, यह भी फिल्म नहीं बताती। फिर क्या उस गद्दार अफसर को नहीं पता कि रॉ वाले उस पर भी नज़र रख सकते हैं? और भी बहुत कुछ है। ऊपर से खुफियागिरी को छोड़ कर दिखाए जाने वाले दृश्य इसे भटकाते हैं, सो अलग। इस थ्रिलर फिल्म में थ्रिल खुराक भी पूरी नहीं है।
(वेब-रिव्यू : गुमनाम कातिल की तलाश में निकली ‘चार्ली चोपड़ा’)
फिल्म की लंबाई अखरने वाली है। क्लाइमैक्स में रॉ वालों का दूसरे मुल्क में घुस कर अपने दुश्मन को मारने का सीक्वेंस दर्शकों को लुभाने के लिए डाला गया लगता है। गाने अच्छे हैं। रहीम और कबीर के लिखे को आधुनिक संगीत में राहुल राम से सुनना जंचता है। रेखा भारद्वाज वाला ‘मत आना…’ उम्दा है। तब्बू के अलावा वामिका गब्बी भी शानदार काम करती हैं। वामिका यहां पैर जमाने आई हैं। नवनिंद्रा बहल व बांग्लादेशी अदाकारा अजमेरी हक़ भी प्रभावी अभिनय करती हैं। आशीष विद्यार्थी, अतुल कुलकर्णी व बाकी कलाकार भी असर छोड़ते हैं। अली फज़ल अपनी सीमित रेंज में रह कर जैसा हमेशा कर पाते हैं, कर जाते हैं। लोकेशन व सिनेमैटोग्राफी फिल्म को शानदार लुक देते हैं।
विशाल भारद्वाज कहानी कहने में भटकाव और उलझाव लाने की बजाय इसे ज़्यादा सरलता से कहते तो यह अधिक प्रभावी बन पाती और ज़्यादा मनोरंजक भी। लेकिन क्या करें, यही विशाल का स्टाइल है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-05 October, 2023 on Netflix
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
उपन्यासों पर बनी फ़िल्में ज़्यादातर एक प्रभाव छोड़ती है बशर्ते कि कहानी से छेड़छाड़ न की जाय….लेकिन इस फ़िल्म में जैसा कि रिव्यु पढ़कर ही पता चल रहा है, कहानी से छेड़छाड़ की गई है। बड़े पर्दे पर फ़िल्म को रीलीज़ न करना भी फ़िल्म की कहानी में दम न होने का प्रमाण होता है….
कोई संदेह नहीं कि तब्बू जी और अन्य अच्छे अदाकार है लेकिन सिर्फ अच्छे अदाकारों के दम पर ही फ़िल्म चल जाय ये तो. मुमकिन नहीं… दम कहानी में भी होना चाहिए…
बहराल, रिव्यु के हिसाब से इस फ़िल्म. को 2 स्टार तो देने बनते ही हैँ…
शानदार विश्लेषण दीपक भाई ✌🏻✌🏻✌🏻✌🏻✌🏻✌🏻
धन्यवाद…