-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
भारत भर में में सदियों से रामलीलाओं का मंचन होता आया है। खासकर हिन्दी पट्टी में सिर्फ दशहरे से पहले के ही नौ दिनों में नहीं बल्कि अन्य अवसरों पर रामकथा के विभिन्न प्रसंगों के मंचन की परंपरा रही है। दूर-दूर से नामी मंडलियों को बुला कर रामलीला होती है और इस दौरान न केवल कलाकारों द्वारा, बल्कि आयोजकों और दर्शकों द्वारा भी पवित्रता व अनुशासन का पालन होता आया है। लेकिन समय के साथ-साथ माहौल दूषित हुआ और कई जगहों पर रामलीलाओं के दौरान मंचों पर मसखरों की हरकतें व आइटम डांस भी होने लगे। यह फिल्म ऐसे ही माहौल को दिखाने व इस प्रदूषण के विरुद्ध बात करने आई है।
रामसेवक चौबे अपने बेटे, भतीजे व अन्य कलाकारों के साथ मंडली बना कर आसपास के गांवों, कस्बों में रामलीला का मंचन करते हैं। एक जगह कुछ ऐसा घटित होता है जिससे खिन्न होकर चौबे जी मंडली भंग कर देते हैं। लेकिन उनका भतीजा पुरुषोत्तम हिम्मत नहीं हारता। पर जब वह आगे बढ़ता है तो पाता है कि यह काम इतना भी आसान नहीं। आइटम डांस की डिमांड, कलाकारों का मेहनताना, पुलिस व नेताओं की दादागिरी के अलावा अपने ही परिवार वालों का विरुद्ध हो उठना उसके आड़े आता है। पर जब राम जी सहाय हों तो भला किस बात की चिंता?
सिनेमा के पर्दे पर बहुत कम ही सही, रामलीलाओं का ज़िक्र हुआ है। ‘लज्जा’, ‘स्वदेस’ जैसी फिल्मों में रामलीला दिखती है। यह फिल्म इस मायने में अलग है कि यह पूरी तरह से रामलीला करने वाले कलाकारों के निजी व पेशेवर जीवन में झांकती है, उनके रास्ते में आने वाली मुश्किलों की बात करती है। अंत में यह जिस तरह से ताकत पर आस्था की जीत दिखाती है, उससे उम्मीदें जगती हैं, विश्वास को बल मिलता है और मन भी नम होता है। लेखक राकेश चतुर्वेदी ‘ओम’, विनय अग्रहरि व पल्लव जैन अपनी लेखनी से बांधे रखते हैं। हालांकि कई जगह पटकथा में आने वाले मोड़ों का अनुमान पहले से लगने लगता है। लेकिन घटनाओं का तेज गति से घटते चले जाना सुहाता है। संवाद कई जगह उल्लेखनीय हैं। ब्रज की बोली का भी सलीके से इस्तेमाल हुआ है।
निर्देशक राकेश चतुर्वेदी ‘ओम’ फिल्म पर पकड़ बनाए रखने में कामयाब रहे हैं। उनके काम की गहराई महसूस होती है। उन्हें थोड़ा और बड़ा फलक, बड़ा बजट मिला होता तो यह फिल्म अधिक ‘बड़ी’ व ‘भव्य’ भी हो सकती थी। यह फिल्म सिर्फ उपदेश नहीं देती, मनोरंजन करती है, एक लव-स्टोरी दिखाती है, समाज में व्याप्त जाति भेद की बात करती है, वर्ग भेद की बात करती है और कहीं न कहीं राह भी सुझाती, दिखाती है। दो-एक जगह हल्की कमज़ोर पड़ कर यह अमूमन अपनी तय पटरी पर रहती है और यही इसकी सफलता है। रियल लोकेशन, कैमरा, संपादन व पार्श्व संगीत फिल्म को रंगत देते हैं। गीत-संगीत फिल्म के मिज़ाज के अनुकूल है और सुहाता है।
ताकत और आस्था की लड़ाई दिखाती है ‘मंडली’-राकेश चतुर्वेदी ‘ओम’
अभिषेक दुहान अपने किरदार से न्याय करते हैं। आंचल मुंजाल उनका भरपूर साथ देती हैं। आंचल को दो-तीन जगह अपना दम दिखाने का मौका मिला और वह चूकी नहीं हैं। अश्वत्थ भट्ट, अलका अमीन, सहर्ष कुमार शुक्ला, रजनीश दुग्गल, नीरज सूद व अन्य कलाकार अपने किरदारों में समाए दिखे। कंवलजीत सिंह व बृजेंद्र काला कम दिखे लेकिन जब भी दिखे, असरदार रहे। वरिष्ठ अभिनेता विनीत कुमार सब पर भारी रहे हैं।
इस किस्म की फिल्में विश्वास जगाती हैं-सिनेमा के प्रति, जीवन के प्रति। इन्हें सोचने वालों, बनाने वालों और बनवाने वालों की तारीफ होनी चाहिए। सिनेमा के पर्दे पर कुछ अलग, कुछ सार्थक, कुछ गहरा, कुछ असरदार देखना चाहें तो यह फिल्म आपके लिए है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-27 October, 2023 in theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Detailed review of the Movie…Ek baar dekhna to banta he hai…..