-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
सैयद अब्दुल रहीम का नाम सुना है आपने? काफी मुमकिन है कि नहीं सुना होगा। दरअसल 1909 में हैदराबाद में जन्मे एस.ए. रहीम एक ऐसे फुटबॉलर थे जिन्होंने फुटबॉल खेलने से ज़्यादा खेलाने पर ध्यान दिया। 1950 से 1963 में अपनी मृत्यु तक भारतीय फुटबॉल टीम के कोच रहे रहीम साहब के मार्गदर्शन में भारत ने दो बार ऐशियाई खेलों में गोल्ड जीता और 1956 के मेलबॉर्न ओलंपिक में हम सेमी-फाइनल तक जा पहुंचे। उनके जाने के बाद से आज तक हमारी टीम ओलंपिक में घुस भी नहीं पाई है। अब बताइए, सैयद अब्दुल रहीम का नाम सुना है आपने? नहीं सुना होगा, क्योंकि ऐसे नायकों के बारे में बताने-सुनाने की अपने यहां परिपाटी ही नहीं रही। अब तक के सबसे सफल भारतीय कोच रहे उन्हीं रहीम साहब के आखिरी 12 सालों की कहानी दिखाती है फिल्म ‘मैदान’। (Maidaan)
लेकिन जब सिनेमा इतिहास और नायकों के बारे में बताने लगता है तो वह तथ्यों से ज़्यादा मनोरंजक तत्वों पर ध्यान देता है। यह ज़रूरी भी है क्योंकि अपने यहां करोड़ों खर्च करके न तो डॉक्यूमैंट्रियां बनाई जाती हैं और न ही सैंकड़ों खर्च करके दर्शक उन्हें देखने जाते हैं। यह फिल्म भी अपनी कहानी और अपने तेवर में ‘फिल्मीपना’ लाती है। लेकिन ऐसा करते हुए यह अपने नायक, उसके जज़्बे, उसके जुझारूपन और उसके सम्मान के साथ समझौता नहीं करती। एक अनसुने नायक की अनसुनी कहानी को कायदे से सामने लाती है फिल्म ‘मैदान’। (Maidaan)
तीन घंटे लंबी यह फिल्म अपने पहले हिस्से में रहीम साहब की एक मज़बूत टीम इक्ट्ठा करने की कोशिशों, उनके जुझारूपन, उनके परिवार, फुटबॉल फेडरेशन के अंदर की खींचतान आदि के बहाने से 50 के दशक के भारत की तस्वीर भी दिखाती है। जहां बाकी लोग फुटबॉल के ज़रिए अपने-अपने हित साधने में लगे हुए थे, रहीम साहब जैसे चंद लोग बिना भेदभाव और क्षेत्रवाद के एक सधी हुई ‘भारतीय’ टीम बनाने की कोशिश कर रहे थे। कभी सफल तो कभी असफल होते रहीम साहब की ज़िंदगी में आए एक मोड़ के बाद कहानी उठान लेने लगती है और अंत आते-आते यह आपकी मुट्ठियों में पसीना और आंखों में नमी ला पाने में कामयाब हो जाती है। यहां आकर सिनेमा को सार्थक कर जाती है फिल्म ‘मैदान’। (Maidaan)
लेकिन यह फिल्म कमियों से परे नहीं रह पाई है। इसकी लिखाई कोई बहुत कमाल की नहीं है। बहुत सारे लोगों ने मिल कर इस फिल्म को लिखा है। शायद यह भी एक वजह रही हो इसके हल्केपन की। खासतौर से इसका फर्स्ट हॉफ तो बहुत कसावट मांगता है। 181 मिनट की इसकी लंबाई कई जगह ज़्यादा लगती है। संवाद भी कोई बहुत पैने नहीं हैं जबकि अजय देवगन पर दमदार संवाद जंचते हैं। मनोज मुंतशिर शुक्ला और ए.आर. रहमान की जोड़ी का गीत-संगीत बुरी तरह निराश करता है। अपने कलेवर से यह फिल्म शाहरुख खान वाली ‘चकदे इंडिया’ जैसी लगती है। एक नाकाम दिखते कोच का एक कामयाब टीम खड़ी करने का वैसा ही सपना दिखाती है फिल्म ‘मैदान’।
‘बधाई हो’ वाले अमित रवींद्रनाथ शर्मा का निर्देशन सधा हुआ रहा है। कहानी के अंदरूनी संघर्षों को वह कायदे से बिखेरते-समेटते हैं। ‘चकदे इंडिया’ से अलग वह टीम के खिलाड़ियों की ज़िंदगी में न जाकर अपना फोकस कोच रहीम साहब पर ही रखते हैं। कह सकते हैं कि उनका ध्यान इस फिल्म को मसालेदार बनाने की बजाय जानदार बनाने पर रहा जिसमें वह कामयाब भी हुए हैं। अजय देवगन के किरदार को भी उन्होंने ‘हीरो’ बनाने की बजाय भरसक सहज रखा है जिससे वह ‘फिल्मी’ नहीं बन पाया है। कमाल इस फिल्म की तकनीकी टीम ने भी भरपूर किया है। 50 के दशक की प्रोडक्शन डिज़ाइनिंग से लेकर, रंगों और पोशाकों तक पर की गई मेहनत दिखती है। खेल के मैदान में फुटबॉल के संग भागता कैमरा रोमांच में ज़बर्दस्त बढ़ोतरी करता है। ए.आर. रहमान अपने बैकग्राउंड म्यूज़िक से कमाल का वातावरण रचते हैं। साऊंड डिज़ाइनिंग पर बहुत बारीकी से काम किया गया है। खेल जगत की पॉलिटिक्स के साथ-साथ खेल-पत्रकारिता की पॉलिटिक्स को भी बखूबी परखती है फिल्म ‘मैदान’। (Maidaan)
(रिव्यू-‘बधाई हो’, बढ़िया फिल्म हुई है…!)
अजय देवगन ने अंडरप्ले करते हुए एक बार फिर से कमाल का अभिनय किया है। इंटरवल के बाद अपने किरदार में आए बदलाव को वह अपने अभिनय से ऊंचा उठाते हैं। गजराज राव बेहद प्रभावी रहे। प्रियामणि जब भी दिखीं, अपनी-सी लगीं। अभिलाष थपलियाल, विजय मौर्य, इश्तियाक खान व अन्य सभी कलाकार अपने-अपने किरदारों के साथ न्याय करते हैं। यह फिल्म भारतीय खेलों के एक गुमनाम हो चुके नायक के बहाने से यह भी बताती है कि मैदान में फतेह भले ही खिलाड़ी हासिल करते हों लेकिन बाहर खड़े उनके कोच का भी उस जीत में कम योगदान नहीं होता। अंत में उस दौर के असल खिलाड़ियों को सम्मान के साथ पर्दे पर लाकर अपना रुतबा बढ़ा जाती है फिल्म ‘मैदान’। (Maidaan)
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-11 April, 2024 in theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
रिव्यु पढ़कर एकबार तो फ़िल्म को देखना बनता है…… फ़िल्म . बेशक लबी हो लेकिन ठहराव भी होगा ही तभी तो यह फ़िल्म अपने आप को सिद्ध कर पाने में कारगर