-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
कोलकाता शहर। नुक्कड़ नाटक करने वाला एक युवक अचानक गायब हो गया। गायब होने से पहले वह अपनी दोस्त के घर से निकला था। वह घर जो उस दोस्त को एक युवा मंत्री ने दिया हुआ है। उस मंत्री पर ही उस लड़के को गायब करवाने का शक है। मगर पुलिस का कहना है कि उस लड़के के नक्सलियों से संबंध हैं। एक क्राइम रिपोर्टर इस मामले की छानबीन कर रही है। लेकिन उसे भी धमकियां मिलने लगती हैं। क्या है पूरे मामले का सच? लड़का सचमुच गायब हुआ…? या गायब करवाया गया…?
अमिताभ बच्चन, तापसी पन्नू वाली फिल्म ‘पिंक’ रिव्यू-यह ‘पिंक’ गुलाबी नहीं है निर्देशित कर चुके अनिरुद्ध रॉय चौधरी इस फिल्म में हमें राजनीति, पत्रकारिता, नक्सलवाद और रिश्तों की उस उलझी हुई दुनिया में ले जाते हैं जो है तो हमारे इर्दगिर्द ही, लेकिन हम उसे अनदेखा किए बस अपने में मशगूल रहना चाहते हैं। यह फिल्म राजनीति की चालों और दबावों को दिखाती है। पत्रकारिता की नैतिकता और व्यापार की बात करती है। नक्सलवाद के आकर्षण और व्यर्थता पर नज़र डालती है। साथ ही यह उन रिश्तों को भी खंगालती है जो भौतिकता के चलते खोखले हो चले हैं। सच तो यह है कि यह फिल्म एक गुमशुदा लड़के के बहाने से असल में उन खोए हुए मूल्यों को तलाश रही है जो घर, परिवार, समाज, देश आदि में होने तो चाहिएं मगर हैं नहीं।
अनिरुद्ध और श्यामल सेन गुप्ता की कहानी प्रभावी है। लेकिन श्यामल की लिखी पटकथा में उलझाव काफी सारे हैं। फिल्म जो कहना चाहती है, उसे खुल कर कहने की बजाय इशारों और टुकड़ों में कहने का जो तरीका चुना गया है वह दर्शक को कई जगह कन्फ्यूज़ करता है। लगता है कि निर्देशक पर भी कोई दबाव था जो उन्होंने हार्ड-हिटिंग होने की बजाय सरल रास्ता अपनाया। हालांकि अनिरुद्ध का निर्देशन असरदार है लेकिन फिल्म की लंबाई और कहानी कहने की उनकी शैली इसे जटिल बनाती है। इस किस्म की इमोशनल-थ्रिलर फिल्म में भावनाओं का जो ज्वार या तनाव का जो उभार होना चाहिए था, वह कम है। पटकथा के धागे कई जगह टूटते हैं तो कुछ जगह उलझते हैं। हां, रितेश शाह के संवाद बहुत अच्छे हैं, सचमुच बहुत अच्छे हैं और फिल्म देखते हुए ध्यान खींचते हैं।
क्राइम रिपोर्टर के किरदार में यामी गौतम धर ने प्रभावी काम किया है। अपने नानू पंकज कपूर के साथ उनका वार्तालाप फिल्म की जान है। पंकज कपूर को तो देखना भर ही दर्शकों के लिए काफी रहता है। फिल्म की एक खासियत यह भी है कि इसमें हर किरदार, हर कलाकार पर्दे पर ज़रूरत भर दिखा है, न कम न ज़्यादा। नील भूपलम, तुषार पांडेय, पिया वाजपेयी सब उम्दा रहे। बरसों बाद दिखे राहुल खन्ना जंचे भी, जमे भी। गीत-संगीत अच्छा रहा। फिल्म की एक बड़ी खासियत कोलकाता शहर का चित्रण भी है। कैमरा आंखों को सुकून पहुंचाता है।
ज़ी-5 पर आई इस फिल्म को इसके उलझे हुए कथानक से जूझते हुए देखा जाना चाहिए। इसे देखते हुए दिमाग पर थोड़ा अतिरिक्त ज़ोर लगे तो हर्ज़ नहीं होना चाहिए।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-16 February on Zee-5
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Bhut bdia
धन्यवाद
रिव्यु का शीर्षक काफी उम्दाह है।
रिव्यु पढ़कर लगता है कि इसको देखना पैसा वसूल रहेगा। कलाकरों की कला का वर्णण उनके काम के प्रति लगन को दर्शा रहा है।
कोलकाता को कलकत्ता के सादृश्य में देखना काफी अच्छा रहेगा।
पिंक जैसी बेहतरीन फिल्म के बाद अनिरुद्ध चौधरी से कुछ ज्यादा उम्मीद होना लाज़िम है और वह लॉस्ट नहीं होते कहीं भी और यही इनकी और कहानी की खासियत है!! दीपक जी के रिव्यू के बाद नक्सलवाद , पत्रकारिता राजनीति की जटिलता को समझने में आसानी हो जाती है! यामी गौतम, पंकज कपूर राहुल खन्ना के सतुलित अभिनय के लिए फिल्म को देखना तो बनता ही है!
धन्यवाद