-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
कौन कहता है कि अपने यहां के किसी लेखक को नए विचार नहीं सूझते? कौन कहता है कि हमारी फिल्में कुछ अलग नहीं परोस सकतीं? कौन कहता है कि अनछुए विषयों पर कायदे की मनोरंजक फिल्म नहीं बनाई जा सकतीं? ‘लगान’ देखिए, आपको इन सब सवालों का जवाब मिल जाएगा। यह फिल्म आने से पहले आमिर खान की ‘अति परफैक्शनिस्टता’ को लेकर जो शंका जताई जा रही थी कि कहीं वो इस फिल्म को ले ही न डूबे, वो निर्मूल साबित हुई है और इस फिल्म का नाम हमारे सिनेमाई इतिहास में लंबे समय तक चमक कर दूसरों को भी राह दिखाता रहेगा।
सन् 1893 में मध्य भारत के एक छोटे से गांव का आम किसान भुवन (आमिर खान) एक सनकी अंग्रेज़ कप्तान रसेल (पॉल ब्लैकथोर्न) की इस चुनौती को स्वीकार कर लेता है कि यदि वो अंग्रेज़ों को उनके खेल क्रिकेट में नहीं हरा पाया तो पूरा प्रांत तिगुना लगान भरेगा। भुवन की जीत पर अगले तीन बरस के लगान के माफ होने का वादा अंग्रेज़ कप्तान करता है। एक बचकानी चुनौती से शुरू हुआ यह खेल धीरे-धीरे एक जन आंदोलन का रूप ले लेता है और अंत में भुवन व उसके साथी अंग्रेज़ों को हरा देते हैं।
पहली नज़र में सुनने वालों को कहानी में बचकानापन लग सकता है। लेकिन यह बात तय है कि ऐसी कहानी आज तक अपनी किसी फिल्म में नहीं आई है और न ही ऐसी फिल्म बनाने का साहस ही कोई कर पाया है। सन् 1893 में अंग्रेज़ी हुकूमत का भारत के राजाओं पर कस चुका शिकंजा, उस दौर के ग्रामीण जीवन, अंग्रेज़ी शान-शौकत के अलावा फिल्म कई छोटे-छोटे मुद्दों पर भी ध्यान खींचती है। लेकिन काफी लंबी इस फिल्म में कहने भर को भी एक सीन, एक संवाद या एक पात्र ऐसा नहीं है जो अपनी जगह पर फिट न नज़र आया हो।
अवधी उच्चारण वाले के.पी. सक्सेना के गंवई संवाद, जावेद अख्तर के गीत, ए.आर. रहमान का संगीत, गांव का सैट, वेश-भूषा, चरित्र-चित्रण, ऐसी एक-एक चीज़ को बारीकी से गढ़ा गया है और इस सबके लिए एक संवेदनशील निर्माता के तौर पर आमिर बधाई के पात्र हैं। धारावाहिक ‘अमानत’ की डिंकी यानी ग्रेसी सिंह का काम काफी अच्छा रहा। उसी का ही क्यों, फिल्म में सभी कलाकारों ने अपनी सर्वश्रेष्ठ परफॉर्मेंस दी है जिनमें ब्रिटिश कलाकार भी शामिल हैं। अभी तक अपने माथे पर ‘पहला नशा’ और ‘बाज़ी’ की नाकामी का धब्बा लिए घूम रहे निर्देशक आशुतोष गोवारीकर के लिए ‘लगान’ सफलता का जगमगाता सेहरा लाई है।
‘‘सच और साहस है जिसके मन में, अंत में जीत उसी की रहे’’-इस संवाद की थीम पर टिकी यह फिल्म आशुतोष और आमिर के सच व साहस का प्रतिफल है। देख डालिए इसे, ऐसी फिल्में कभी-कभार ही बनती हैं।
अपनी रेटिंग-साढ़े चार स्टार
Release Date-15 June, 2001
(नोट-‘लगान’ की मेरी यह समीक्षा उस दौर की लोकप्रिय फिल्म मासिक पत्रिका ‘चित्रलेखा’ के मेरे कॉलम ‘इस माह के शुक्रवार’ में छपी थी।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)