-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
भारत-पाक विभाजन की पृष्ठभूमि पर अब तक कई फिल्मकारों ने अपने-अपने ढंग से फिल्में बनाई हैं। यह बात दीगर है कि उनमें से हर एक ही सिनेमाई भाषा एक-दूसरे से जुदा रही है। दरअसल कोशिश की जाए तो इंसानी इतिहास की उस सबसे बड़ी त्रासदी पर बेहिसाब फिल्में बनाई जा सकती हैं। निर्देशक अनिल शर्मा ने भी एक कोशिश की है और क्योंकि वह जिस तरह की फिल्में बनाते आए हैं-‘हुकूमत’, ‘ऐलान-ए-जंग’ जैसी, सो वैसा मसाला इस फिल्म में भी भरपूर मात्रा में है जो उनके और खासकर सनी देओल के दर्शकों को चाहिए होता है।
फिल्म 1947 के दौरान हुई मारकाट में एक प्रेम कथा के पनपने से शुरू होती है। ट्रक ड्राइवर तारा सिंह (सनी देओल) एक मुस्लिम लड़की सकीना (अमीषा पटेल) को बचा कर उससे शादी कर लेता है। बरसों बाद सकीना को पता चलता है कि उसके मां-बाप, जिन्हें वह मरा हुआ समझ रही थी, वे लाहौर में ज़िंदा हैं। सकीना के पिता अशरफ खान (अमरीश पुरी) अपने रसूख से उसका वीज़ा लगवा कर उसे पाकिस्तान बुलवा लेते हैं पर तारा और उसके बेटे को रोक दिया जाता है। तारा सिंह अवैध रूप से पाकिस्तान पहुंचता है और अशरफ खान की सियासी चालों को अपने बाहुबल से कुचलता हुआ अपनी बीवी को लेकर हिन्दुस्तान रवाना होता है।
फिल्म शुरू में हिंदू-मुस्लिम दंगों और इन दोनों कौमों के बीच विभाजन के दौरान पनपे नफरत के पलों का सजीव चित्रण करती है। बाद में भारत-पाक की दुश्मनी पर भी यह आम आदमी की नज़र से करारे प्रहार करती है। शक्तिमान की लिखी इस कहानी में जहां रोचकता, भावुकता और मनोरंजन का संतुलित संगम है वहीं बतौर निर्देशक अनिल शर्मा ने सिनेमाई कलात्मकता और मसालों का एक बढ़िया मिश्रण तैयार किया है जो दर्शकों को पसंद आएगा। कहानी में कई दिलचस्प मोड़ हैं और संवाद भी काफी दमदार हैं। यह अलग बात है कि वे हम हिन्दुस्तानियों के ज़ेहन में पाकिस्तान के प्रति पनप रही नफरत को हवा देने के कारण ही ज़्यादा अच्छे लगते हैं। सनी का एक्शन देखने वाले दर्शकों के लिए फिल्म में प्रचुर खुराक है। अलबत्ता अंत में आकर एक्शन और इमोशन का ड्रामा कुछ ज़्यादा हो गया वरना फिल्म कहने भर को भी कहीं से कमज़ोर नहीं है। आनंद बक्षी ने हल्के-फुल्के शब्दों का इस्तेमाल करते हुए दिल छूने वाले गीत लिखे हैं जिन पर उत्तम सिंह की अच्छी धुनें हैं।
अभिनय के मामले में हर किसी में होड़ रही है। सनी को तो तालियां मिलेंगी ही, उनके साथी दरमियाना सिंह (विवेक शौक) को भी सराहा जाएगा। गज़ब तो ढाया है अमीषा पटेल ने। अपनी दूसरी ही फिल्म से वह अपने साथ ही बाकी अभिनेत्रियों से कहीं आगे जा निकली हैं। ऐसे किरदार अपने यहां की अभिनेत्रियों को उनके समूचे कैरियर में एक-दो ही मिल पाते हैं। उन्हें इस बरस के दो-एक प्रमुख अवार्ड मिल जाएं तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। कुल मिलाकर फिल्म मनोरंजक तो है ही, दमदार भी है
अपनी रेटिंग-चार स्टार
Release Date-15 June, 2001
(नोट-मेरा यह रिव्यू उस दौर की लोकप्रिय फिल्म मासिक पत्रिका ‘चित्रलेखा’ के मेरे कॉलम ‘इस माह के शुक्रवार’ में प्रकाशित हुआ था।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)