-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
आमतौर पर अपने यहां (और लगभग हर जगह) परिवार का लड़‘का’ काम करता है, पैसे कमाता है, घर चलाता है, आगे बढ़ने के सपने देखता है, उन्हें पूरा करने में जुटा रहता है और लड़‘की’ उसका घर संभालती है, उसके बच्चे पैदा करने के लिए अपने सपनों का त्याग करती है और उसका सपोर्ट सिस्टम बनती है।
लेकिन इस कहानी में उलटा है। ‘की’ के सपने बड़े हैं। वह उन्हें पूरा करने में जुटी हुई है। शादी से उसे एतराज नहीं मगर वह किसी मर्द का सपोर्ट सिस्टम नहीं बनना चाहती। बच्चे उसे भी अच्छे लगते हैं लेकिन उन्हें पैदा करने से बचना चाहती है। ऐसे में उसे मिलता है एक ‘का’ जिसकी अपने रईस बाप के बिजनेस में कोई दिलचस्पी नहीं। बल्कि वह तो अपनी मां की तरह घर संभालना चाहता है। अपनी पत्नी का सपोर्ट सिस्टम बनने को राजी है वह। ज़ाहिर है, ये दोनों एक-दूजे के लिए ही बने हैं। इनकी शादी होती है और सब सही भी चलने लगता है। पर क्या इंसानी ज़िंदगी इतनी सहज और सरल हो सकती है?
पति-पत्नी में अपने-अपने काम को लेकर श्रेष्ठता का भाव आना स्वाभाविक है। जो पैसे कमा कर लाता है उसे लगता है कि वह दूसरे से ज़्यादा मेहनती और बेहतर है। घर संभालने वाली औरतों को ‘आखिर दिन भर तुम करती ही क्या हो’ कहना आम बात है। पर अगर ‘की’ और ‘का’ अपने-अपने काम बदल लें तो क्या तब भी ये दिक्कतें आती हैं?
आर. बाल्की अलग किस्म के फिल्मकार हैं। उन्हें अलहदा किस्म की कहानियां कहने का शौक है। ऐसी कहानियां जो अपने समाज में होती तो हैं लेकिन आमतौर पर कोई उनके बारे में बात नहीं करता। उनकी ‘चीनी कम’ और ‘पा’ ऐसी ही बातें कर रही थीं और अब यह फिल्म भी उसी कतार में खड़ी की जा सकती है। यह अलग बात है कि यह फिल्म काफी ‘फिल्मी-सी’ है जिसमें ओपनिंग सीन और क्लाइमैक्स तक काफी प्रभावहीन हैं। बीच-बीच में भी पटकथा की कमज़ोरियां झलकती हैं लेकिन फिल्म जो कहना चाहती है, दो टूक कह देती है और बिना किसी उपदेश-प्रवचन के बताती है कि गृहस्थी की गाड़ी दो पहियों पर चलती है जिनमें से न कोई छोटा होता है, न बड़ा। और अगर बीच में अहं आ जाए तो समझिए हो गया बेड़ा गर्क। यह फिल्म अमिताभ-जया वाली ‘अभिमान’ की झलक भी देती है। बल्कि बीच में अमिताभ-जया के एक प्रसंग के ज़रिए यह उनकी निजी ज़िंदगी में झांकती भी है।
करीना न सिर्फ अपने किरदार में फिट रही हैं बल्कि उनका अभिनय भी असरदार है। अर्जुन कपूर को अपने थुलथुलेपन पर रोक लगानी चाहिए। हालांकि उनके काम में उत्साह कम दिखता है। लंबे अर्से बाद दिखीं स्वरूप संपत आज भी वैसी ही हैं-बेअसर। फिल्म का म्यूज़िक मसाले की तरह ऊपर से छिड़का गया है, मगर ‘मोहब्बत है यह, जी-हुजूरी नहीं…’ फिल्म की थीम के मुताबिक है।
इस फिल्म को देख कर सब मर्दों की सोच अचानक बदल जाएगी, यह सोचना बेवकूफी होगी। मर्दों और ज़्यादातर औरतों के लिए भी पर्दे पर आने वाली इस किस्म की कहानियां सिर्फ कहानियां ही होती हैं। लेकिन हमारे इसी समाज में ऐसे भी काफी लोग हैं जो सिनेमा से सीख हासिल करते हैं और यह फिल्म उन्हें कुछ देकर ही जाएगी।
यह फिल्म उन मर्दों को ज़रूर देखनी चाहिए जो समझते हैं कि घर तो वह चलाते हैं और उनकी पत्नियां उनके कमाए पैसे से ऐश करती हैं। उन मर्दों को भी यह देखनी चाहिए जिनकी पत्नियां भी उनकी तरह बाहर जाकर मेहनत करती है ताकि उनमें आपसी समझ और बढ़ सके।
और हां, इस फिल्म को अकेले नहीं बल्कि अपने पार्टनर, पति, पत्नी, गर्लफ्रैंड वगैरह-वगैरह के साथ बैठ कर देखें, समझें और हो सके तो इससे कुछ हासिल करें। वैसे भी कुछ सार्थक दे सकने वाला सिनेमा कभी-कभार ही बनता है अपने यहां।
अपनी रेटिंग-तीन स्टार
(नोट-इस फिल्म की रिलीज़ के समय मेरा यह रिव्यू किसी अन्य पोर्टल पर छपा था)
Release Date-01 April, 2016
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)