-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
‘पेज 3’ के बाद की मधुर भंडारकर की फिल्मों पर गौर करें तो साफ लगता है कि ‘पेज 3’ के रूप में उन्होंने मीठे पानी का जो गहरा कुंआ खोदा था, उसके बाद की अपनी फिल्मों में वह उसी कुएं से बाल्टियां भर-भर का दर्शकों को पिला रहे हैं। दरअसल ‘पेज 3’ में वह समाज की हाई-क्लास सोसायटी में गिने जाने वाले कमोबेश सभी वर्गों-सिनेमा, राजनीति, फैशन, कॉरपोरेट जगत के साथ-साथ लगभग पूरे समाज की तल्ख तस्वीर दिखा चुके हैं और उसके बाद से वह इनमें से एक-एक वर्ग को लेकर उस पर पूरी-पूरी फिल्म बना रहे हैं। लेकिन इन फिल्मों में वह जिस तरह से पहले दिखाई गई चीजों को परोस रहे हैं उससे बतौर फिल्मकार आगे बढ़ने की बजाय मधुर बस गोल-गोल ही घूमते नज़र आते हैं।
इस फिल्म की बात करें तो यह एक ऐसी अभिनेत्री की कहानी है जो निजी ज़िंदगी में अकेली है, भावनात्मक रूप से कमज़ोर है और इसीलिए हर रिश्ते में कमिटमैंट तलाशती है। लेकिन जिन्हें वह अपना समझती है वे सिर्फ उसका इस्तेमाल कर रहे हैं। उधर नई लड़कियां उसे टक्कर दे रही है। एक तरफ उसे अपने रिश्ते संभालने हैं तो दूसरी तरफ फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पोज़ीशन।
इस कहानी की रूपरेखा हाल ही में आई विक्रम भट्ट की ‘राज 3’ सरीखी है जिसमें वह अभिनेत्री दूसरों से निबटने के लिए काले जादू का सहारा लेती है। इस फिल्म की नायिका जो भी हथकंडे अपनाती है वे हमारे यहां की फिल्म इंडस्ट्री में आमतौर पर पाए जाते हैं। फिल्मी दुनिया के अंदर की कड़वी, स्याह सच्चाइयां दिखाने की कोशिश करती इस फिल्म में एक अभिनेत्री की पीड़ा और खुद को धारा में बनाए रखने की उसकी तड़प को दिखाने की प्रभावी कोशिशें मधुर ने की हैं लेकिन उनकी इन कोशिशों में बनावटीपन झलकता है। फिल्म को संजीदा कलेवर देते समय इस कदर डिप्रेसिव बना दिया गया है कि इसे देखते समय किसी किस्म का सुकून नहीं मिलता लेकिन साथ ही यह कहानी आपके अंदर कोई तड़प भी नहीं जगाती। करीना का किरदार देख कर लगता है कि इसे राष्ट्रीय पुरस्कार पाने की उनकी भूख को शांत करने के लिए खासतौर पर गढ़ा गया है। बहुत-सी बातें हैं इसमें जो जबरन ठूंसी गई लगती हैं।
करीना कपूर की एक्टिंग को ही लीजिए। बेशक उन्होंने बहुत अच्छा काम किया है। लेकिन इसमें कृत्रिमता झलकती है। उनका मेकअप कई जगह ऐसा है जैसे यह कोई हॉरर फिल्म हो। उनसे बेहतर तो दिव्या दत्ता और शाहाना गोस्वामी लगती हैं जिन्हें न सिर्फ काफी छोटे किरदार दिए गए बल्कि उन्हें ज़ाया ही किया गया। रणदीप हुड्डा और गोविंद नामदेव ठीक रहे। अर्जुन रामपाल साधारण रहे। मधुर की फिल्मों का गीत-संगीत वैसे भी कुछ खास नहीं रहता है। यहां भी ‘हलकट जवानी…’ वाला आइटम नंबर ठीक लगता है तो ‘साईयां…’ अच्छा। बाकी सब हल्का है।
मधुर का निर्देशन इस बार उतना दमदार नहीं रहा। उनकी कमान से इससे बेहतर काम हम देख चुके हैं। फिल्म को थोड़ा और सहज, थोड़ा सरल रखते तो यह ज़्यादा असरदार बन पाती। ज़्यादा गुणकारी बनाने के चक्कर में हलवे में जरूरत से ज्यादा मेवे डाल दिए जाएं तो वे हलवे का असली स्वाद बिगाड़ देते हैं, किसी शेफ से यह सीख मधुर को हासिल कर लेनी चाहिए थी।
अपनी रेटिंग-2.5 स्टार
(नोट-21 सितंबर, 2012 को इस फिल्म की रिलीज़ के बाद मेरा यह रिव्यू किसी पोर्टल पर छपा था।)
Release date-21 September, 2012
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)