-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
सच कहूं तो ‘हीरो’ को देखने के लिए जाने से पहले ही मैं इसे लेकर काफी नाउम्मीद था। मैं ही नहीं बल्कि इसके प्रोमोज़ देखने के बाद काफी सारे लोगों को यह लग रहा था कि यह 1983 में आई सुभाष घई की जैकी श्रॉफ-मीनाक्षी शेषाद्रि वाली ‘हीरो’ का आधुनिक रीमेक भले ही हो लेकिन इसमें वैसा दम नहीं होगा जो उस ‘हीरो’ में था। लेकिन एक समीक्षक के नाते मैंने हमेशा यह माना है कि हर फिल्म एक अलहदा प्रॉडक्ट होती है और उसे उसी की खूबियों-खामियों पर ही तौला जाना चाहिए। इसलिए इस ‘हीरो’ को देखते समय बार-बार उस ‘हीरो’ की याद आने के बावजूद मैं इसे इसी की खामियों (खूबियां मुझे इसमें मिली नहीं) पर तौल रहा हूं।
जेल में बंद पाशा अपने पाले गुंडे सूरज की मदद से एक पुलिस अफसर माथुर की बेटी राधा को किडनैप करवा लेता है। सूरज और राधा में प्यार हो जाता है जिसके बाद वह जुर्म का रास्ता छोड़ देता है। लेकिन पाशा और माथुर दोनों ही इस प्यार के खिलाफ हैं। लेकिन, प्यार करने वाले कभी डरते नहीं… जो डरते हैं वो प्यार करते नहीं…।
यानी कहानी वही है, बस उसका सैटअप और समय बदल दिया गया है। पर साथ ही कुछ ऐसी चीजें भी इसमें डाली गई हैं जिन्हें देख कर कोफ्त होती है और तरस आता है इसे लिखने वालों और बनाने वालों की समझ पर। दुखद आश्चर्य तो यह है कि इसके निर्माताओं में सलमान खान के साथ खुद सुभाष घई भी हैं जिन्होंने कहीं कहा कि वह इस रीमेक से खुश हैं। क्यों…? कैसे कोई फिल्मकार अपनी बनाई बेहद खूबसूरत फिल्म का सरेआम बलात्कार होते देख कर खुश हो सकता है…?
स्क्रिप्ट इस कदर बचकानी है कि महज़ दो घंटे 10 मिनट की यह फिल्म भी आपको पकाने लगती है। फिल्म में डांस, रोमांस, म्यूज़िक, एक्शन, इमोशन, थ्रिल, कॉमेडी जैसे तमाम मसाले हैं लेकिन वे कोई रंगत नहीं बिखेरते। सूरज और राधा का प्यार आपके दिल में नहीं उतरता। उनका दर्द आपको टीस नहीं देता। कॉमेडी आपको हंसाती नहीं है और इमोशंस आपको रुलाते नहीं हैं। सच तो है कि यह फिल्म आपको बिना छुए निकल जाती है।
निखिल आडवाणी के डायरेक्शन में कोई दम नजर नहीं आता। म्यूजिक बेहद साधारण है। फिल्म के खत्म होने के बाद पर्दे पर सलमान अपनी ही आवाज में ‘मैं हूं तेरा हीरो…’ गाते दिखाई देते हैं तो भले ही थोड़ा सुकून मिलता हो लेकिन तब तक आपके सब्र का घड़ा भर चुका होता है। आदित्य पंचोली के बेटे सूरज पंचोली और सुनील शैट्टी की बेटी आथिया शैट्टी की इस फिल्म से काफी हल्की शुरूआत हुई है। आथिया को जहां अपनी लुक पर ध्यान देने की जरूरत है वहीं सूरज को समझ लेना चाहिए कि सिर्फ मसल्स दिखा कर वह अपने समकालीन हीरोज़ को नहीं मसल सकते। अच्छी बॉडी वाला बंदा अच्छी एक्टिंग भी कर लेगा, यह मिथ तो सुनील शैट्टी को देख कर ही टूट गया था फिर क्यों सुनील ने अपनी ही बेटी को एक ऐसे ही हीरो की हीरोइन बनने दिया जिसके मसल्स में जितनी हरकत होती है, उतनी उसके चेहरे के एक्सप्रेशंस में नहीं?
इस फिल्म को अपने रिस्क पर देखें। आपका दिल टूटने की जिम्मेदारी आप ही की होगी। और हां, पुरानी वाली ‘हीरो’ से इसकी तुलना न करें वरना आप खुद के बाल नोच लेंगे। मैंने भी ऐसा नहीं किया। करता तो इसे डेढ़ स्टार न देकर ज़ीरो देता और वह भी बड़ा वाला।
अपनी रेटिंग-डेढ़ स्टार
Release Date-11 September, 2015
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)