-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
शेक्सपियर की कालजयी कृति ‘रोमियो एंड जूलियट’ को दुनिया भर के कई फिल्मकार अपने-अपने तरीके से बना-दिखा चुके हैं। अपने यहां हाल-फिलहाल में अर्जुन कपूर वाली ‘इशकजादे’ और प्रतीक बब्बर वाली ‘इस्सक’ जैसे उदाहरण सामने हैं। पर भंसाली की यह फिल्म ‘गोलियों की रासलीला-राम लीला’ इन दोनों से अलग है। पहली तो इस मायने में कि यह इनसे ज्यादा भव्य है जहां बड़े-बड़े सैट्स हैं, आंखों को चुंधियाने वाली रंग-बिरंगी लोकेशंस हैं, भारी-भरकम कपड़े-गहने हैं और दूसरी इस मायने में कि अपने कथ्य के स्तर पर यह फिल्म इन दोनों की फिल्मों के आसपास भी नहीं ठहरती। जी हां, संजय लीला भंसाली जैसा निर्देशक इस बार आडंबर रचने में इस कदर मसरूफ रहा कि वह सत्व परोसने पर ध्यान ही नहीं दे पाया।
‘रोमियो एंड जूलियट’ के दो प्रतिद्वंद्वी परिवार कैपुलेट्स और मोंटेग्यूस यहां रजाड़ी और सनेड़ा हैं और वेरोना शहर की जगह है रंजार नाम की एक ऐसी जगह जहां सरेआम गोलियां चलती ही नहीं बल्कि हर गली-कूचे में बंदूकें ऐसे बिकती हैं जैसे आलू-प्याज। रजाड़ी और सनेड़ा के बीच 500 साल से दुश्मनी चली आ रही है। क्यों? यह पूछने वाले हम और आप भला कौन होते हैं? अब कहने को तो यह एक गांव है लेकिन यहां की हर लड़की के पास स्मार्ट फोन है और जब रजाड़ियों के मुखिया का छोटा बेटा छैल-छबीला राम सीना उघाड़े निकलता है तो वे सरेआम उसके फोटो खींचती हैं और गश खा-खाकर गिरती हैं। राम का कहना है कि सारी रजाड़ी लड़कियों के साथ वह ‘ऐश’ कर चुका है सो इस बार होली पर सनेड़ा की किसी लड़की पर लाइन मारी जाए। और उसकी किस्मत देखिए, वहां जाते ही वहां के मुखिया की खूबसूरत बेटी लीला न सिर्फ उस पर मर-मिटती है बल्कि अगले ही पल उसे चूम कर विदा करती है। फिर जहां एक तरफ इनकी प्रेम-कहानी परवान चढ़ती है वहीं दोनों परिवारों की दुश्मनी भी। और अंत तो सब को पता ही है कि रोमियो-जूलियट का क्या हुआ था?
ढेरों कमियां हैं इस फिल्म में लेकिन पहली और सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि ये कमियां भंसाली के रचे गए आडंबर भरे भव्य माहौल में झट से नज़र नहीं आतीं। रोमियो-जूलियट की कहानी को देसी बनाने के लिए जो जगह, जो माहौल, जो परिवार रचे गए हैं, वे बनावटी लगते हैं। यह अलग बात है कि उन पर चमक-दमक का ऐसा मुलम्मा चढ़ा हुआ है कि फिल्म खत्म होने तक भी दर्शक उसके आभामंडल से निकल नहीं पाता। और अगर भंसाली जैसे मेकर को भी चलताऊ किस्म के डायलॉग, सस्ते शेर, सैक्सी संदर्भ, प्रियंका चोपड़ा वाला आइटम नंबर जैसे मसाले इस्तेमाल करने पड़ जाएं तो यकीन मानिए, या तो वह खुद पतन की तरफ जा रहे हैं या फिर बाज़ार के दबाव उन्हें इस तरफ धकेल रहे हैं। फिल्म मुख्यतः एक प्रेम-कहानी है लेकिन प्रेम की महक महसूस नहीं होती तो कसूर किस का है? हैरानी होती है कि ‘हम दिल दे चुके सनम’ जैसा क्लासिक रोमांस दिखा चुके भंसाली इस कहानी के डायरेक्टर हैं।
ऐसा नहीं है कि फिल्म एकदम सपाट है। पहली चीज़ तो वही भव्यता है जो इस की कमज़ोर स्क्रिप्ट को ढक लेती है और इसे एक वन टाइम वॉच मूवी के स्तर तक ले जाती है। फिर कुछ गाने, कुछ डायलॉग, कुछ कैमरागिरी, कुछ रंग-बिरंगा माहौल, कुछ लोगों की अच्छी एक्टिंग वगैरह-वगैरह भी तो हैं ही।
रणवीर सिंह इस फिल्म की सबसे कमज़ोर कड़ी हैं। सिर्फ सिक्स पैक बनाने से वह पोस्टर पर तो अच्छे लग सकते हैं लेकिन रोमियो वाली गहराई उनमें नज़र नहीं आती। दीपिका पादुकोण कुछ एक जगह ही प्रभावित करती नज़र आईं। एक्टिंग तो दमदार की है सुप्रिया पाठक कपूर ने। सचमुच गजब!
कुछ गीत देखने में अच्छे हैं तो कुछ सुनने में। लेकिन ये इतने ज़्यादा हैं कि बहुत जल्द इनसे कोफ्त होने लगती है। ठीक उसी तरह जैसे इस फिल्म में इतनी ज़्यादा गोलियां चली हैं कि क्लाइमैक्स आते-आते सिर भारी हो जाता है।
अगर ‘रोमियो एंड जूलियट’ का देसी वर्ज़न देखने का इतना ही मन है तो एक बार फिर से ‘इशकजादे’ देख लीजिए। या फिर प्रतीक बब्बर वाली ‘इस्सक’ जिसके बारे में मैं इतना ही कहूंगा कि वह ‘रोमियो एंड जूलियट’ का हिन्दी में बना अब तक का सबसे ईमानदार और करीबी वर्ज़न है। आगे आपकी मर्ज़ी।
अपनी रेटिंग-2.5 स्टार
(इस फिल्म की रिलीज़ के समय मेरी यह समीक्षा किसी अन्य पोर्टल पर छपी थी।)
Release Date-15 November, 2013
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)