-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
लखनऊ की एक बहुत पुरानी हवेली फातिमा महल। एकदम खंडहर। उसकी उतनी ही पुरानी मालकिन-95 बरस की फातिमा बेगम। उनका 78 बरस का शौहर मिर्ज़ा-एकदम खड़ूस, कंजूस, नाकारा और सनकी। इस हवेली में रहते पांच किराएदारों के परिवार। ये मिर्ज़ा से परेशान, मिर्ज़ा इनसे परेशान। इनमें से ही एक है बांके जिसके साथ मिर्ज़ा की हरदम तू-तू-मैं-मैं लगी रहती है। मिर्ज़ा इस हवेली को बेगम से हड़पना चाहता है तो वहीं किराएदार चाहते हैं कि उन्हें भी कुछ मिल जाए। इस पकड़म-पकड़ाई में कभी मिर्ज़ा आगे तो कभी बांके एंड पार्टी।
तो आखिर ‘गुलाबो सिताबो’ अपने यहां की पहली ऐसी फिल्म हो ही गई जो बनी तो थिएटरों के लिए थी लेकिन लॉकडाउन के चलते जिसे वेब पर लाया गया। अमेज़ॉन प्राइम पर आई इस फिल्म के नाम की बात करें तो असल में गुलाबो-सिताबो नाम से उत्तर प्रदेश में दो कठपुतलियों का तमाशा दिखाया जाता रहा है जिसमें ये दोनों औरतें एक-दूसरे से हमेशा लड़ती-भिड़ती रहती हैं। इस फिल्म के मिर्ज़ा और बांके का रिश्ता भी कुछ ऐसा ही है। लड़ेंगे-मरेंगे लेकिन रहेंगे इक्ट्ठे। यूं समझ लीजिए कार्टून कैरेक्टर टॉम और जैरी की तरह हैं ये दोनों। फिल्म में एक सीन भी है जिसमें बांके की छोटी बहन टी.वी. पर ‘टॉम एंड जैरी’ देख रही है।
जूही चतुर्वेदी इस किस्म के ज़मीनी अहसास वाली कहानियां लिखने में माहिर हैं तो शुजित सरकार इन्हें पर्दे पर उतारने में। इस फिल्म में भी इनकी मेहनत पर्दे पर भरपूर ‘दिखाई’ देती है, ‘महसूस’ भले न हो। जी हां, इस फिल्म की सबसे बड़ी कमी यही है कि यह ‘महसूस’ नहीं होती। लखनऊ का माहौल, वहां की पुरानी हवेली, मिजा़र् और बेगम के साथ-साथ किराएदारों का रहन-सहन आदि जिस तरह से दिखता है, प्रभावी लगता है। लगता है कि ये सारा सैटअप रचने में तकनीकी टीम ने काफी सारी मेहनत की होगी। किरदारों की पोशाकों, लुक, बातचीत, मुश्किलों जैसी तमाम बातों को फिल्म दिखाती है। तो यह महसूस क्यों नहीं होती? कमी आखिर कहां रह गई?
कमी दिखाई देती है किरदारों को गढ़ने में। कमी महसूस होती है कहानी के सहज प्रवाह में। फिल्म के तमाम किरदार बेहद स्वार्थी दिखाए गए हैं। हर कोई बस दूसरे से फायदा उठाना चाहता है। एक भी शख्स ऐसा नहीं है जिसके साथ आप खुद को रिलेट कर सकें या किसी एक के प्रति आपके मन में हमदर्दी या समर्थन जगे। आप तय ही नहीं कर पाते कि गुलाबो को सही मानें या सिताबो को। और इन दोनों के बीच की रस्साकशी भी कुछ देर बाद हल्की पड़ जाती है। हालांकि ये किरदार दिलचस्प हैं लेकिन कहानी के प्रवाह में ये अपनी मौजूदगी पूरी शिद्दत से महसूस नहीं करवा पाते। फिल्म की बेहद धीमी रफ्तार और सपाट ट्रीटमैंट इसे बोर बनाता है। फिर स्क्रिप्ट में भी कुछ एक छेद दिखाई देते हैं, खासतौर से पैसे को लेकर। आटा-चक्की का मालिक बांके महीने का 30 रुपए किराया देने में भी मरा जा रहा है। मिर्ज़ा आधा खीरा भी 20 रुपए में खरीद के खा रहा है।
अमिताभ बच्चन मिर्ज़ा के किरदार की भंगिमाओं को तो जम कर दिखाते हैं लेकिन उनके चेहरे को मेकअप से इस कदर ढक दिया गया कि उनके भाव पकड़ में ही नहीं आते। उन जैसे समर्थ कलाकार के साथ यह ज़्यादती है। निर्देशकों को उनकी लुक की बजाय उनके अभिनय को उभारने पर ध्यान देना चाहिए। आयुष्मान खुराना हमेशा की तरह जंचते हैं लेकिन उन्हें बेहद ढीला किरदार मिला। फारुख ज़फर, विजय राज़, बृजेंद्र काला, सृष्टि श्रीवास्तव, अंत में पुलिस वाले बन कर आए संदीप यादव जैसे तमाम कलाकारों ने जम कर काम किया है। लेकिन एक शख्स जो एक्टिंग के मामले में सब पर भारी दिखा वह हैं नलनीश नील। मिर्ज़ा के गूंगे नौकर के चरित्र को वह अपनी अदाओं से रोचक बनाते हैं।
गीत-संगीत गंभीरता लिए हुए है। अविक मुखोपाध्याय ने कैमरे से कमाल किया है। संवाद चुटीले हैं और कई जगह लखनवी अंदाज की बातें भी। लेकिन इनमें नमक-नींबू की कमी खलती है। फिल्म संदेश देती है कि लालच इंसान को कहीं का नहीं छोड़ता। लेकिन यह संदेश आप तक सपाट तरीके से पहुंचता है। चुटीलेपन और व्यंग्य की कम खुराक फिल्म को नीरस बनाती है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-12 June, 2020
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)