-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
‘फुकरे’ फिर आ गए हैं। यदि आपने इस सीरिज़ की पिछली दो फिल्में देखी हों तो आपको पता होगा कि जून, 2013 में आई ‘फुकरे’ में चूचा के सपने को आधार बना कर हनी लाटरी का नंबर निकालता था। फिर दिसंबर, 2017 में आई ‘फुकरे रिटर्न्स’ में चूचा को भविष्य में होने वाली घटनाएं सपने में दिखने लगीं। और यदि आपने इस तीसरी फिल्म का ट्रेलर देखा हो तो आपको पता चल गया होगा कि इस बार का कमाल चूचा के पेशाब में है। तो बस, यहीं समझ जाइए कि जब एक कॉमेडी फिल्म को लिखने-बनाने वाले लोग मूत-पेशाब पर उतर आएं तो उनके पास परोसने को कॉमेडी नहीं बल्कि कचरा ही है।
इस बार की कहानी में भी चूचा को सपने आ रहे हैं और ये लोग (हनी, चूचा, लाली और पंडित जी) लोगों से चवन्नी-अठन्नी लेकर चूचा के सपनों के दम पर उनके खोए हुए कच्छे तलाश रहे हैं। उधर भोली पंजाबन नेता बन कर चुनाव में खड़ी हो गई है। इस फिल्म में चूचा को पहला सपना (देजा चू) एक टॉयलेट का ही आता है। बाद में कुछ ऐसा होता है कि चूचा का पेशाब और हनी का पसीना मिल कर पैट्रोल बन जाता है। बीच-बीच में भी बहुत सारे हगने, मूतने, घिसने, रगड़ने वाले सीन और संवाद आते-जाते रहते हैं।
फिल्म इंडस्ट्री में ऐसा चलन है कि निर्माता, निर्देशक लोग अपने लेखक को खंडाला या गोआ जैसी किसी हसीन जगह पर कुछ हफ्तों के लिए भेज देते हैं ताकि वह वहां सुकून से फिल्म की स्क्रिप्ट लिख सके। लेकिन इस फिल्म को देख कर लगता है कि निर्माता फरहान अख्तर और निर्देशक मृगदीप सिंह लांबा ने लेखक विपुल विग को किसी बदबूदार टॉयलेट में बंद कर दिया कि जब स्क्रिप्ट पूरी हो जाए तभी बाहर आना और उस बदबू से निजात पाने के लिए विपुल ने फटाफट उसी बदबू को अपनी स्क्रिप्ट में उतार डाला ताकि कम से कम उन्हें तो वहां से बाहर निकाला जाए, बाकी का पब्लिक भुगत लेगी।
पहली वाली ‘फुकरे’ में सचमुच एक उम्दा आइडिया था, कहानी थी और इन फुकरों के किरदारों की अनोखी अदाएं भी थीं। इसलिए जब वह फिल्म चली तो उसके कंधे पर सवार होकर लिखी गई ‘फुकरे रिटर्न्स’ ने भी जबरन खिंची हुई कहानी के बावजूद गैग्स, पंचेज़ और अदाओं के दम पर कामयाबी पा ली थी। तब मैंने लिखा था कि ‘‘इस कहानी का इंजन पुराना पड़ा चुका है, टायर घिस चुके हैं, भले ही ऊपर से रंग-रोगन शानदार किया गया हो। अरे, सिर्फ गैग्स और पंचेस पर ही हंसना हो तो टी.वी. के पकाऊ कॉमेडी शोज़ बुरे हैं क्या?’’ (रिव्यू-पंचर कॉमेडी है ‘फुकरे रिटर्न्स’)
लेकिन इस बार तो लिखने वालों ने कहानी की परवाह ही नहीं की। बस जो उनके मन में आया, दिखाते गए, जहां उनके मन में आया कहानी को घुमाते गए क्योंकि असल मकसद तो अदाएं दिखाना और टॉयलेट ह्यूमर के ज़रिए बस किसी तरह से लोगों को हंसाना ही था न। तो दर्शकों, यह आप तय कीजिए कि आपको हगने-मूतने की बातों पर हंसना है…? एक ऐसी फिल्म पर अपना वक्त और पैसा लगाना है जिसे देखते हुए आप कुछ खा-पी तक नहीं सकते…? वक्त आपका है, पैसा भी और मर्ज़ी भी।
‘तीन थे भाई’ जैसी बेकार फिल्म देने के बाद ‘फुकरे’ से चल पड़े निर्देशक मृगदीप सिंह लांबा अगर इतने ही कमाल के डायरेक्टर होते तो बीते दस साल में सिर्फ दो और फिल्में, और वह भी दोनों फुकरे सीरिज़ वाली ही न देते। यही बात लेखक विपुल विग के बारे में भी कही जा सकती है कि यदि वह इतने ही कमाल के कॉमेडी-लेखक होते तो अभी तक सिर्फ तीन ‘फुकरे’ फिल्म के अलावा भी तो कुछ और दे चुके होते। तो जनाब, जब ड्राईवर और कंडक्टर अनाड़ी हैं और सिर्फ तीर-तुक्के मार रहे हैं तो उस गाड़ी की सवारी आपको करनी है या नहीं, यह आप ही को सोचना पड़ेगा। असल में संसाधनों और प्रतिभाओं को बर्बाद करती है यह फिल्म।
पुलकित सम्राट को ‘फुकरे’ वाली फिल्मों का शुक्रगुज़ार होना चाहिए जो उन्हें रोज़गार दे रही हैं। वैसे इस फिल्म में पुलकित, मनजोत सिंह, ऋचा चड्ढा आदि को देख कर तो ऐसा लग रहा है जैसे वह ‘एक्टिंग’ नहीं ‘काम’ कर रहे हों। भई, किरदार भी तो दिए जाएं, तभी तो कलाकार कुछ करेगा न। चूचा बने वरुण शर्मा ने अपना जो स्टाइल बना लिया है, उसके चलते वह लुभाते हैं और उन्हीं की मौजूदगी है जो हंसा पाती है। मनु ऋषि चड्ढा जैसा काबिल कलाकार तक फिल्म में बेबस दिखा। पंकज त्रिपाठी ने हमेशा की तरह प्रभावित किया लेकिन उन्हें यह सलाह है कि इस किस्म की कहानी में अपने टेलेंट को बर्बाद न करें, उनके चाहने वालों को ठेस पहुंचती है। बाकी, इस फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है जिसका ज़िक्र किया जाए। और हां, दिल्ली को, दिल्ली की छवि को बदनाम करती है यह फिल्म।
यह भी पढ़ें-‘फुकरे 3’ में क्यों नहीं होंगे अली फज़ल
इतना सब पढ़ने के बाद भी यदि आपको यह फिल्म लुभा रही है तो अवश्य देखें। आप ही के पैसों से फरहान अख्तर की कंपनी चलेगी। वैसे भी, इस कड़ी की चौथी फिल्म की घोषणा इस फिल्म के अंत में कर दी गई है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-28 September, 2023 in theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
बढ़िया…मैंने अभी ट्रेलर देखा तो नहीं था और अब देखूंगा भी नहीं।
अभद्र, अश्लील, संस्कारी भाषा रहित और इशारों में नग्नता परोसते डायलॉग ही अगर बॉलीवुड की फ़िल्में हैँ तो इस फ़िल्म में काम करने वालों और कराने वालों का लेवल क्या है… समझ में आता है..
क्या एक माइनॉरिटी समुदाय को टारगेट करने के लिए या इस तरह की वाहियात फ़िल्में बनाने के लिए बॉलीवुड के पास समय है और सबसे बड़ी बात कि क्या देखने वालों के पास भी इस तरह कि फ़िल्में देखने के लिए समय है???
रिव्यु जिस तरह का है उसमें कोई संदेह नहीं कि कुछ लोगों की रोजी-रोटी सिर्फ ‘फुकरे’ नाम से ही चल रही है… जैसा कि रिव्यु में लिखा है कि “त्रिपाठी” जी के लेवल की ये फ़िल्म नहीं थी और इन्होने इसमें काम किया…. मैं इनकी बात से इत्तीफ़ाक़ रखता हूं और त्रिपाठी जी के लिए कहूंगा की आप इस तरह की बेहयाईपन वाली फिल्मों में काम न करें….आपके काम का एक लेवल है और उस लेवल से नीचे के काम की आपसे अपेक्षा नही की जाती है… अन्यथा ऐसा प्रतीत हो रहा है कि आपके पास भी काम नहीं था और आप “काम ” के चक्कर में आकर अपने काम का लेवल गिरा बैठे…
बहराल रिव्यु और फ़िल्म देखने का वाद अगर कोई ऑप्शन – माइनस स्टार रेटिंग वाला होता तो मैंने उसी के हिसाब से -5 रेटिंग देता…
फिर भी अगर पैसे और समय की बर्बादी करनी है तो इस फ़िल्म को अवश्य ही देखना चाहिए…!!!