-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
जगोधर नाम के एक कस्बे में अपनी राजनीति चमकाने की खातिर एक युवा लफंगे, शराबी नेता ने शराब के नशे में मंच से बोल दिया कि जब तक यहां शराबबंदी नहीं होगी, वह अनशन करेगा। अब बोल दिया तो बोल दिया। अब तो इस कस्बे में शराब की दुकान बंद होकर ही रहेगी। मगर कैसे…?
हाल के समय में ओ.टी.टी. मंचों ने किसी एक सामाजिक मुद्दे को पकड़ कर पूरे ढोल-ताशे के साथ उसे उठाते हुए कोई फिल्म बनाने का जो साहस हमारे लेखकों, फिल्मकारों को दिया है, ज़्यादातर लोग उसका दुरुपयोग करते हुए ही दिखे हैं। यह फिल्म भी उन फिल्मों से अलग नहीं है जो कहना तो एक अच्छी बात चाहती है लेकिन कैसे कहें, यह न तो खुद समझ पाती है और न ही दूसरों को समझा पाती है। सच तो यह है कि इस किस्म के आइडिया सोचने, सुनने में तो जंचते हैं लेकिन जब दो लाइन के विचार को फैला कर दो घंटे की फिल्म बनाने की बात आती है तो लेखक की दिमागी उड़ान फैल कर चौराहा हो जाती है जहां से खुद उसे ही समझ नहीं आता कि अब जाएं तो जाएं कहां…!
अपनी फिल्म इंडस्ट्री भी गजब जगह है। उम्दा कहानियां लेकर अपनी चौखट पर खड़े बाहरी लोगों को यह भीतर नहीं आने देती और यही कारण है कि इसके अंदर बैठे लोग जो भी, जैसा भी रच रहे होते हैं, यह उसी को महान बताने पर तुल जाती है। आप चाहें तो हैरान हो सकते हैं कि सौरभ शुक्ला जैसे लेखक (हालांकि बतौर लेखक उन्होंने लंबे समय से कोई उल्लेखनीय काम नहीं किया है) ने इस फिल्म को लिखा है और ऐसा लिखा है जिसे देख कर अफसोस होता है। स्क्रिप्ट के ताने-बाने बिखरे पड़े हैं। किरदारों के कद-बुत उलझे पड़े हैं। संवादों के बोल बिगड़े पड़े हैं और आप हैं कि गालियों और बेतुकी बातों से फिल्म बनाने पर तुले पड़े हैं।
बतौर निर्देशक भी सौरभ शुक्ला ने अब तक ऐसा कुछ नहीं दिया है जिसे याद करके सिनेमा या सिनेप्रेमी खुश हों, गर्व करें। तो क्यों सौरभ निर्देशक बनने की ज़िद पकड़े बैठे हैं। बेहतरीन अदाकार हैं वह। तो अपनी अदाकारी से दर्शकों के दिलों में बनी जगह को और पुख्ता करने की बजाय क्यों बार-बार निर्देशक के रूप में आकर औसत काम देते हैं? यह सवाल उन्हें खुद से पूछना चाहिए। और अगर उन्हें ऐसा करना ही है तो फिर एक उम्दा कहानी और कसी हुई पटकथा लें, न कि अपनी ही लिखी ढीली स्क्रिप्ट पर खुद ही एक ढीली-ढाली सी फिल्म बनाएं। अपनी बनी-बनाई साख से खेलना उन्हें नुकसान ही पहुंचाएगा, पहुंचा भी चुका है।
‘पंचायत’ वाले सचिव जी यानी जीतू भैया यानी जितेंद्र कुमार ने भी इस फिल्म में हीरो बन कर अपनी इमेज पर धब्बा ही लगाया है। बहुत जगह तो वह आर्य बब्बर जैसे लगे-दिखने में भी और एक्टिंग करने में भी। श्रिया पिलगांवकर, श्रीकांत वर्मा, अन्नू कपूर, जगदीश राजपुरोहित, सुनील पलवल, किरण खोजे, अजय पाल, सौरभ नैयर जैसे कलाकार बस अपने किरदारों को किसी तरह से निभा भर गए। जब न तो कहानी, पटकथा और किरदारों में दम हो तो यह ‘निभाना भर’ भी काफी हो जाता है। गीत-संगीत, कैमरा आदि हल्के रहे। फिल्म की एडिटिंग बहुत ढीली है। ढीली तो यह पूरी फिल्म ही है जिसमें हास्य, करुणा, एक्शन, संवेदना, संदेश, कुछ भी उभर कर नहीं आ पाता है।
अमेज़न प्राइम पर आई इस फिल्म को देखना है, नहीं देखना है या फॉरवर्ड करते हुए देखना है, यह अब आपने ही तय करना है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-22 December, 2023 on Amazon Prime
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
गज़बबबबबब……
रिव्यु पढ़कर बस इतना ही कहना चाहूंगा कि….
“कौँवा चला हंस की चाल, पता लगा कि अपनी चाल भी भूल गया ”
ये जुमला…. निर्देशक और पंचायत वाले अभिनेता जी दोनों क़े लिये है.