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Home फिल्म/वेब रिव्यू

रिव्यू-ज़िंदगी की कड़वाहट से महकती ‘कस्तूरी’

Deepak Dua by Deepak Dua
2023/12/08
in फिल्म/वेब रिव्यू
3
रिव्यू-ज़िंदगी की कड़वाहट से महकती ‘कस्तूरी’
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-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)

महाराष्ट्र का एक कस्बा। कस्बे के पास बस्ती। ज़्यादातर ऐसे लोग जिन्हें समाज ने हाशिये पर धकेल रखा है। इन्हीं में से एक है 14-15 बरस का गोपीनाथ चव्हाण। मां सफाई कर्मचारी, शराबी पिता सरकारी अस्पताल में पोस्टमार्टम करने और लावारिस शवों को दफनाने वाला। गोपी स्कूल जाने के अलावा इन दोनों के काम में हाथ बंटाता है और साथ ही गटर में उतरने वालों की भी मदद करता है। इसके बाद जब उसके कपड़ों, शरीर से बू आती है तो वह इत्र लगाता है। उसने कहीं से सुन लिया कि हिरण के पेट से निकली कस्तूरी में कभी न खत्म होने वाली खुशबू होती है। वह पैसे जमा करने लगता है ताकि कस्तूरी खरीद सके और उसकी महक से खुद को महका सके। सफल हो पाता है गोपी या फिर…!

इस फिल्म को देखना आसान नहीं है। इसे लिखने वालों ने इसके किरदारों के जीवन का सच पूरी सच्चाई, ईमानदारी और क्रूरता के साथ लिखा है और निर्देशक ने उसे उतनी ही सच्चाई, ईमानदारी व क्रूरता के साथ दिखाया भी है। टॉयलेट साफ करने, गटर में उतरने, मोर्चरी में शवों का पोस्टमार्टम करने जैसे अनेक दृश्य हैं जो वीभत्स हैं, जुगुप्सा पैदा करते हैं। इन सबके बावजूद इसके किरदारों का जीवट हैरान करता है। खासतौर से गोपी का मुस्कुराता चेहरा मन में जगह बनाता है। गोपी के हर काम में उसका साथ देने वाले दोस्त आदिम का किरदार भी मनभावन है। इन बच्चों की मासूमियत हमें आशावान बनाती है। ज़िंदगी की कड़वाहट के बीच भी महकाने का काम करती है।

इस फिल्म को बनाना भी आसान नहीं रहा होगा। इसे देखते हुए आश्चर्य होता है कि क्या यह सचमुच एक ‘फिल्म’ है? क्या इसमें सचमुच ‘कलाकारों’ ने काम किया है? या फिर इसे लिखने-बनाने वालों ने वास्तविक किरदारों को लेकर वास्तविक माहौल में वास्तविक घटनाओं को फिल्मा दिया? अपनी बुनावट में यह फिल्म एक ज़रूरी सिनेमाई दस्तावेज बन गई है। यह हमारे समाज का वह चेहरा सामने लाती है जिसे जानते तो हम सभी हैं लेकिन उसे अनदेखा करने की भी हमें आदत हो चुकी है। वरना इस बात से भला कौन वाकिफ नहीं होगा कि पोस्टमार्टम करना काम भले ही डाक्टरों का हो लेकिन उन्हें करता ‘कोई और’ है। गोपी के स्कूल, उसके परिवार, आसपास के माहौल, आदिम के पिता की मीट की दुकान आदि के ज़रिए यह फिल्म हमें उस हाशिये की दुनिया में ले जाती है जिसकी मौजूदगी से भी हम कतराते हैं।

26 जनवरी के दिन गोपी को स्कूल में संस्कृत भाषा में अव्वल आने का पुरस्कार मिलना है लेकिन वह अस्पताल में काम कर रहा है। वह दृश्य कचोटता है जब वह निकलने को है लेकिन तभी एक एंबुलैंस कोई शव लेकर आती है और वह ‘काम’ में जुट जाता है। गोपी के नन्हें हाथों में सर्जिकल ब्लेड और छैनी-हथौड़ी देख कर दिल में हूक उठती है।

गोपी बने सोमनाथ सोनावणे, आदिम के किरदार में श्रवण उपलकर, गोपी की मां बनीं वैशाली केंदाले, अनिल कांबले समेत हर कलाकार ने अद्भुत काम किया है। विनोद कांबले का निर्देशन इस फिल्म की ताकत है। फिल्म में काफी सारी मराठी है सो मुमकिन है गैर-मराठियों को कहीं कुछ दिक्कत हो। लेकिन इससे फिल्म का प्रवाह मंद नहीं हुआ है। उलटे अंदरूनी महाराष्ट्र का यथार्थ चेहरा दिखा कर यह फिल्म हमें आलोकित ही करती है।

ढेरों फिल्म समारोहों में भरपूर तारीफें और पुरस्कार पा चुकी यह फिल्म सर्वश्रेष्ठ बाल-फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी हासिल कर चुकी है। लेकिन अपने यहां के सार्थक सिनेमा की विडंबना देखिए कि ये सब भी इसे थिएटरों तक नहीं पहुंचा सका और जब नागराज मंजुले व अनुराग कश्यप जैसे लोग इससे जुड़े तो कहीं जाकर इसे बड़ा पर्दा नसीब हुआ है। कहीं मिले यह फिल्म तो इसे देखिएगा। कुछ हासिल ही करेंगे। 

(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)

Release Date-08 December, 2023 in theaters

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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Comments 3

  1. Ramesh Burnwal says:
    2 years ago

    क्या बात है! फिल्मकार और निर्माता को सलाम! ये भारतीय सिनेमा के स्वर्णकाल जैसा ही है। हर तरह का सिनेमा हर तरह के दर्शकों को ध्यान में रखकर बनाया जा रहा है। और आप जैसे समीक्षक समभाव से सब पर कलम चलाकर लोगों को जागरूक बनाने का काम कर रहे हैं। आपको भी सलाम!

    Reply
    • CineYatra says:
      2 years ago

      धन्यवाद… अच्छे सिनेमा को सराहने वाले दर्शकों को भी सलाम…

      Reply
  2. NAFEESH AHMED says:
    2 years ago

    रिव्यु पढ़कर एक ऐसी फ़िल्म को देखना वाकई सार्थक होगा कि जोकि समाज क़े एक ऐसे तबके को दिखाती है जो हाशिये पर किया हुआ है….

    और क्या काम कौन करता है उसको भी दर्शाता है… सत्यता पर बनी फ़िल्में हमेशा ही दरकिनार की जाती रही हैँ चाहे उसको राष्ट्रीय पुरस्कार मिला हो या ण मिला हो….जहाँ एक और ‘जानवर’ को ‘एनिमल ‘ नाम से फ़िल्म रिलीज़ करके, जानवरों जैसा बर्ताव दिखाकर अथाह करोड़ों का बिजनिस कर लेती हैँ…

    Reply

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