-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
हरित प्रदेश का अधपढ़ा मुख्यमंत्री घोटाले के आरोप में जेल गया तो अपनी दब्बू पत्नी को कुर्सी सौंप गया। जेल में काम से बचने के लिए उसने दसवीं की पढ़ाई शुरू कर दी और इधर उसकी पत्नी के पंख निकल आए। चौधरी को शिक्षा का महत्व समझ में आने लगा और चौधराइन को पॉवर का। और जब दोनों आमने-सामने आए तो…!
अपने फ्लेवर में यह फिल्म कहीं सोशल कॉमेडी है तो कहीं राजनीतिक व्यंग्य। मुख्यमंत्री का प्रदेश, वेशभूषा, बोली और शिक्षक भर्ती के घोटाले का आरोप इसकी कहानी को हरियाणा के ओमप्रकाश चौटाला प्रकरण से जोड़ता है तो वहीं उसकी पत्नी का कुर्सी संभालने वाला घटनाक्रम इसे बिहार के लालू-राबड़ी तक ले जाता है। रितेश शाह और सुरेश नायर ने इस कहानी में कल्पनाओं का छौंक लगाते हुए इसे लगातार दिलचस्प बनाए रखा है। पढ़ाई करने के दौरान किताबों के किरदारों का चौधरी को दिखाई देना इसे ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ सरीखा बनाता है तो जेल-अधीक्षक का उसे पढ़ाई में मदद करना इसे ‘दो आंखें बारह हाथ’ के ‘अपराध से घृणा करो अपराधी से नहीं’ वाले संदेश के निकट ले जाता है। छोटे-छोटे प्रसंगों, डॉ. कुमार विश्वास के लिखे चुटीले संवादों और दिलचस्प किरदारों के सहयोग से यह फिल्म लगातार आपको आकर्षित करती है और यही इसकी सफलता है।
लेकिन यह फिल्म उतनी मारक, पैनी, तीखी या गाढ़ी नहीं हो पाई है कि यह दिल-दिमाग पर छा जाए। पहली वजह है इसे लिखने वालों की दृष्टि का स्पष्ट न होना। कहानी का नायक चौधरी कम पढ़ा-लिखा, भ्रष्ट, अपनी ताकत पर घमंड करने वाला बदतमीज़ किस्म का इंसान है। यानी एक ऐसा व्यक्ति जिससे एक आम दर्शक को नफरत होनी चाहिए, फिल्म उसकी यात्रा दिखा रही है और दर्शक से यह उम्मीद की जा रही है कि वह उसकी कामयाबी की दुआ करे। कहने को यह फिल्म ‘पढ़ाई की कोई उम्र नहीं होती’ और ‘शिक्षा पाकर इंसान विनम्र होता है’ दिखाना चाह रही है लेकिन यह ‘दिखाना’ उतना प्रभावशाली नहीं है कि ‘दर्शनीय’ हो जाए। चौधरी बदला भले हो लेकिन अंत तक मगरूर ही रहा है। उसके किरदार में मुन्ना भाई वाला आमूल-चूल परिवर्तन आता तो बात ज़्यादा अंदर तक उतर पाती। वहीं उसकी पत्नी का सत्ता पाते ही अपने पति तक को दुश्मन मान लेना भी अखरता है। मुमकिन है कि फिल्म बनाने वाले इसे रूपक के तौर पर दिखा रहे हों कि पॉवर किसी को भी भ्रष्ट बना कर सकती है लेकिन यह रूपक एक आम भारतीय पति-पत्नी को अखरेगा कि नहीं? जेल में नई आई अधीक्षक चौधरी से त्रस्त है लेकिन उसे बेवजह फेवर पर फेवर किए जा रही है। कोई पूछे उससे, क्यों भई?
अभिषेक बच्चन ऐसे अलहदा किरदारों में ही जंचते हैं। यहां उन्हें खूब लाउड होने की इजाज़त मिली और उन्होंने इसका जम कर फायदा भी उठाया। उनकी पत्नी बनीं निमरत कौर अपने किरदार को फर्स्ट क्लास ढंग से पकड़ती हैं। जेल की अफसर यामी गौतम अपनी सीमित अभिनय क्षमता के चलते बस पासिंग मार्क्स ही ला पाईं। रायबरेली के किरदार में दानिश हुसैन, घंटी बने अरुण कुशवाह, जेलर मनु ऋषि, पत्रकार बने शिवांकित सिंह परिहार जैसे कलाकार फिल्म को भरपूर सहारा देते हैं। कुछ और जाने-पहचाने चेहरे होते तो असर और बढ़ता ही।
गीत-संगीत जैसा है, ठीक है। कैमरा, लोकेशन बढ़िया हैं। कई बड़ी फिल्मों में सहायक रह चुके तुषार जलोटा बतौर निर्देशक अपनी इस पहली फिल्म से असर छोड़ पाने में कामयाब हुए हैं। ज़्यादा गहराई से न सोचें तो नेटफ्लिक्स पर आई यह फिल्म आपको एक टाइमपास मनोरंजन तो देती ही है भले ही कुल मिला कर यह सैकिंड डिवीजन में पास हुई हो।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-07 April, 2022
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
यह फ़िल्म भले ही सेकेंड डिवीजन में पास हुई हो लेकिन फ़िल्म समीक्षक के रूप में आप हमेशा की तरह शत प्रतिशत नंबरों से पास हुए हैं डॉ. दीपक (Ph.D in film review)
🌹❤️🌷👍
हा… हा.. धन्यवाद, भाई साहब…
Bilkul shi kah apne Dr. Deepak Dua 👏👏👏
thanks ji…