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Home फिल्म/वेब रिव्यू

ओल्ड रिव्यू-अपने ही बनाए फिल्मी ‘चक्रव्यूह’ में फंसे प्रकाश झा

Deepak Dua by Deepak Dua
2012/10/24
in फिल्म/वेब रिव्यू
0
ओल्ड रिव्यू-अपने ही बनाए फिल्मी ‘चक्रव्यूह’ में फंसे प्रकाश झा
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-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)

सामाजिक सरोकारों से जुड़े ज्वलंत मुद्दों पर फिल्में बनाने में महारथ हासिल है प्रकाश झा को। लेकिन इधर कुछ समय से उनकी फिल्में देख कर ऐसा लगने लगा है जैसे वह किसी किस्म की जल्दबाज़ी में हैं। विषय की तह में पूरी तरह से गोता लगाए बिना और मुद्दे पर अपना स्टैंड क्लियर किए बिना वह जिस तरह से फिल्में बनाते चले जा रहे हैं उससे उनकी विश्वसनीयता आज नहीं तो कल, धुंधली ज़रूर हो जाएगी। हालांकि यह भी सही है कि एक फिल्मकार का काम न तो किसी तरह का स्टैंड लेना होता है और न ही किसी समस्या को सुलझाने का हल सुझाना। फिर भी एक कहानी को कहते समय झा को इतना तो स्पष्ट करना ही होगा कि वह आखिर जो कहना चाहते हैं उसे लेकर उनकी अपनी समझ कितनी साफ है।

यह कहानी है एक ऐसे जिले की जहां नक्सलवाद अपनी जड़ें गहरे तक जमा चुका है। पुलिस अफसर आदिल (अर्जुन रामपाल) और उसकी पुलिस अफसर बीवी रिया (ऐशा गुप्ता) इनसे जूझ रहे हैं लेकिन कोई खास कामयाबी इन्हें मिल नहीं पाती। ऐसे में इनका एक पुराना दोस्त कबीर (अभय देओल) इनके सामने प्रस्ताव रखता है कि वह नक्सलियों के गुट में शामिल होगा और आदिल को उनकी खबरें भेजेगा। लेकिन धीरे-धीरे कबीर नक्सलियों की विचारधारा से प्रभावित होकर उनकी तरफ हो जाता है और अंत में अपने दोस्तों के हाथों मारा जाता है।

कहानी पूरी फिल्मी है। जी हां, इस कहानी के बारे में यही कहा जा सकता है। फिर इसकी पटकथा में भी कई पेंच हैं और इनसे भी ऊपर टिकट-खिड़की का वह दबाव भी इसमें साफ दिखाई देता है जिसके चलते झा एशा गुप्ता जैसी ग्लैमरस फिगर वाली बाला को आई.पी.एस. अफसर के रोल में ले लेते हैं या समीरा रेड्डी पर एक आइटम नंबर फिल्मा कर उसे जबरन ठूंस देते हैं। हालांकि इन सारे दबावों के बीच से रास्ता निकालते हुए उन्होंने अपनी बात को और हर पक्ष के विचार को सामने रखने की जो कोशिश की, उसमें वह कमोबेश कामयाब ही नज़र आते हैं। नक्सली विचारधारा हो या विकास के नाम पर सरकारी जमीन को निजी हाथों में सौंपने का खेल, झा हर चीज़ को छूते ज़रूर हैं, भले ही हौले से।

लेकिन फिल्म खामियों से अछूती भी नहीं है। सबसे बड़ा दोष तो चरित्र-चित्रण का है और उसके बाद इनमें लिए गए कलाकारों के चयन का। अजुर्न रामपाल हों, ऐशा गुप्ता या अभय देओल, तीनों ही अपने किरदारों में मिसफिट लगते हुए बहुत ही ‘फिल्मी’ किस्म के नजर आते हैं। मनोज वाजपेयी जंचे लेकिन उनके किरदार को गहराई ही नहीं दी गई। नई अदाकारा अंजलि पाटिल का काम सबसे प्रभावी कहा जा सकता है। बाकी सब ठीक रहे। संगीत औसत किस्म का है। वैसे तो पूरी फिल्म ही औसत है जिसे सिर्फ उन्हीं को देखना चाहिए जो इस तरह के सामाजिक सरोकारों वाली फिल्मों को पसंद करते हैं। लेकिन इस फिल्म से अगर यह उम्मीद करेंगे कि यह आपको कचोटेगी या नक्सली समस्या पर कोई स्वीकार्य समाधान पेश करेगी तो आपको ज़बर्दस्त निराशा हाथ लगेगी।

अपनी रेटिंग-2.5 स्टार

(इस फिल्म की रिलीज़ के समय मेरा यह रिव्यू किसी अन्य पोर्टल पर प्रकाशित हुआ था)

Release Date-24 October, 2012

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

Tags: Abhay Deolanjali patilarjun rampalchakravyuh reviewesha guptakabir bediManoj Bajpaiom puriprakash jha
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