-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
लखनऊ के एक स्कूल में इतिहास पढ़ाने वाले अज्जू भैया का शहर में जलवा है। उसने अपने बारे में ऐसा माहौल बना रखा है कि हर कोई उसे सलाम करता है। अपनी इस झूठी इमेज को बनाए रखने के लिए वह किसी का भी दिल दुखा सकता है-अपने माता-पिता का भी और उस नई-नवेली, बेहद खूबसूरत और पढ़ाई में टॉपर रही पत्नी का भी जिसे उसने अपनी इमेज निखारने के लिए ही चुना था लेकिन एक छोटी-सी कमी के कारण उसे घर में बंद कर दिया और नाम दिया-डिफेक्टिड पीस। अब शादी के दस महीने बाद यूरोप यात्रा के बहाने से ये दोनों पहली बार एक-दूसरे के साथ हैं। वहां ये लोग सैकिंड वर्ल्ड वॉर से जुड़े स्मारक देख रहे हैं। लेकिन एक वॉर इन दोनों के बीच भी चल रही है। क्या ये अपने भीतर की वॉर को जीत पाएंगे या फिर हिटलर के गैस चैंबर में बंद कैदियों की तरह घुट कर रह जाएंगे?
पति-पत्नी के आपसी रिश्तों के तनाव को विश्वयुद्ध से जोड़ने और उस पर जीत हासिल करने के लिए हिटलर की सोच को समझने-परखने का विचार बुरा नहीं है। कल्पनाओं की उड़ान भरने वाले लेखक ऐसे नए-नवेले विचार लाएंगे तो ही सिनेमा समृद्ध होगा। लेकिन एक विचार के आने मात्र से अच्छी कहानियां नहीं बना करतीं, एक कहानी के सोचे जाने भर से कसी हुई स्क्रिप्ट नहीं बन जाया करतीं और एक स्क्रिप्ट के हाथ में आने से ही अच्छी फिल्में बन कर तैयार नहीं हो जाया करतीं। मन में आए विचार से लेकर उस विचार के पर्दे पर उतरने तक की पूरी यात्रा भी किसी वर्ल्ड वॉर से कम नहीं होती जिसमें ज़रा-सी चूक हार का कारण बन सकती है और यहां यही हुआ है।
यह फिल्म बातें अच्छी करती है। कहती है कि इंसान के पास सब कुछ होते हुए भी वह क्यों हिटलर की तरह दूसरों पर राज करना चाहता है। लेकिन दिक्कत यही है कि यह फिल्म जो बातें कर रही है, उन बातों का दृश्यों के साथ तालमेल बिठाने के लिए जो स्क्रिप्ट रची गई है वह बेहद अतार्किक है, कमज़ोर है, उथली है और दिल में टीस पैदा करने का दम नहीं रखती। नायिका में जो कमी है, उस कमी पर हमारी फिल्मों में बात नहीं होती है। इसलिए इस फिल्म की तारीफ होनी चाहिए। नायक-नायिका के रिश्तों के उतार-चढ़ाव भी कहीं-कहीं कचोटते हैं। लेकिन पटकथा की कमज़ोरी, कहानी के अविश्वसनीय मोड़ और उस कहानी को पर्दे पर दिखाते हुए पैदा हुई बोरियत ने फिल्म के असर को धुंधला किया है।
‘दंगल’ रिव्यू-‘दंगल’ खुद के खुद से संघर्ष की कहानी और ‘छिछोरे’ रिव्यू-जूझना सिखाते हैं ये ‘छिछोरे’ जैसी फिल्में दे चुके नितेश तिवारी ने कुछ सीक्वेंस अच्छे बनाए हैं। लेकिन पूरी फिल्म को वह कस कर नहीं रख पाए। एक अच्छे विचार के इर्दगिर्द बुनी कई कमज़ोर पटकथा ने उनके हाथ बांधे रखे। वरुण धवन ने पूरी कोशिश की कि वह ‘अक्टूबर’ रिव्यू-उम्मीदों का मौसम ‘अक्टूबर’ वाला करिश्मा कर सकें, लेकिन अपनी खिलंदड़ी इमेज से वह बाहर निकल ही नहीं पाते। जाह्नवी खूबसूरत लगी हैं और कहीं-कहीं असरदार भी। मगर उनका किरदार रचने में लेखक गड़बड़ा गए। टॉपर, खुल कर जीने वाली, अमीर परिवार से आई लड़की यूं अचानक दब्बू कैसे बन गई? मनोज पाहवा ने कमाल का काम किया। वरुण की मां बनीं अंजुमन सक्सेना भी बढ़िया रहीं लेकिन लखनऊ में रह कर वह बात-बात पर ‘जय नर्मदा मैया’ क्यों कहती रहीं? बाकी कलाकार अच्छे रहे। गीत-संगीत ठीक-ठाक है। यूरोप की लोकेशन अच्छी हैं और कहानी में घुल-मिल जाती हैं।
इतिहास की घटनाओं के साथ अपने आज के रिश्ते को जोड़ने के उम्दा विचार को यदि कायदे की स्क्रिप्ट का साथ मिला होता तो यह फिल्म सचमुच बवाल मचा सकती थी। फिलहाल तो इसका नाम भी इसकी कहानी पर फिट नहीं बैठ रहा है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-21 July, 2023 on Amazon Prime Video
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
चलो काफी लम्बे अरसे बाद एक ” बिना बवाल ” वाली फ़िल्म रिलीज़ हुई… रिव्यु शत प्रतिशत सही है…आपका रिव्यु पढ़कर ही पता चल जाता है कि फ़िल्म में कितना ‘दम ‘ है…धन्यवाद..