-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
दिल्ली के बेहद रईस परिवार का बेटा है रॉकी रंधावा। लाउड म्यूज़िक सुनने वाला, ज़ोर-ज़ोर से बोलने वाला, रंग-बिरंगे कपड़े पहनने वाला, बॉडी से तगड़ा लेकिन दुनियावी ज्ञान और अंग्रेज़ी से कमज़ोर। करोड़ों-अरबों के बिज़नेस का इकलौता वारिस। उधर दिल्ली के ही बंगाली परिवार की बेटी है रानी चटर्जी। मां अंग्रेज़ी की प्रोफेसर, पिता कथक डांसर, खुद टी.वी. जर्नलिस्ट। बताइए है कुछ कॉमन दोनों में। लेकिन पिछले दिनों ‘बवाल’ (रिव्यू-ठीक से नहीं मचा ‘बवाल’) की हीरोइन ने पूछा था न-कुछ कॉमन होना ज़रूरी है क्या?
रॉकी और रानी के बीच ही नहीं, इन दोनों के परिवारों में भी कुछ कॉमन नहीं है। रॉकी की फैमिली में दादी का राज चलता है जिनके लिए उनकी परंपरा, प्रतिष्ठा और अनुशासन ही सब कुछ है। एक औरत की सत्ता वाले इस घर में बाकी की औरतों की ही नहीं, किसी पुरुष की भी कोई खास इज़्ज़त नहीं है और इससे किसी को कोई फर्क भी नहीं पड़ता। उधर रानी के घर में लोकतंत्र है, स्त्री-पुरुष समानता है, बंगाली भद्रजनों वाली ‘क्लास’ है। तो फिर कैसे होगा रॉकी और रानी का मिलन?
शादी सिर्फ दो लोगों का ही नहीं बल्कि दो परिवारों का भी मिलन होता है। लेकिन अगर दोनों परिवार एक-दूसरे से उलट हों तो इनके बच्चों के मिलने की राह टेढ़ी ही नहीं ऊबड़-खाबड़ भी होगी। यह फिल्म इसी ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर चलते हुए, ढेर सारे मनोरंजन और थोड़े बोरियत के पड़ावों को पार करते हुए आपको आनंद की ऐसी मंज़िल पर ले जाकर छोड़ती है जहां पहुंच कर आपको सिर्फ मंज़िल याद रहती है, रास्ते की गड़बड़ियां नहीं।
शशांक खेतान, इशिता मोइत्रा और सुमित रॉय की लिखी कहानी में नयापन नहीं है। किसी कारण से मिले लड़के-लड़की का आपस में प्यार कर बैठना हम देखते आए हैं। दूसरे के घरवालों का दिल जीतने के लिए उसके घर में जाकर रहना भी हमने देखा है। लेकिन जैसा कि करण जौहर की फिल्मों में होता है, स्क्रिप्ट में चमक-दमक है, तड़क-भड़क है, फिल्मी रफ्तार में सब कुछ फटाफट हो रहा है-मिलना, बिछुड़ना, रूठना, मनाना, अपमान, सम्मान, गलत, सही, सब कुछ। इससे पहले कि किसी को कुछ अखरे, अगला सीक्वेंस आ जाता है। मसालेदार ’बॉलीवुड’ फिल्म बनाने की यही शर्त है कि दर्शक को बांधे रखो, जहां पकड़ ढीली हुई, वह मोबाइल में सिर दे देगा। हालांकि ऐसे मौके यहां भी आए हैं। खासतौर से शुरुआती हिस्से में ऐसा बहुत कुछ है जो बेवजह खिंचा हुआ लगता है, 15-20 मिनट की कैंची चला कर पौने तीन घंटे की इस फिल्म को कसा जा सकता था।
स्क्रिप्ट में ऐसे कई मोड़ हैं जो आपको छूते हैं, कसते हैं, कचोटते हैं। कहीं परिवार की बात, कहीं समानता की और कहीं स्त्री के अधिकारों की बात करते हुए फिल्म खुद को प्रगतिशील बनाती है तो वहीं ढेर सारे पुराने गानों के कारवां से यह आपको बीते दौर के सुरीले ज़माने में भी ले जाती है। पटकथा के जाने-पहचाने मोड़ों के बावजूद कई संवाद दिल छूते हैं, हंसाते हैं और हां, अंत में आंखें नम भी करते हैं।
फैमिली ऑडियंस की जिस नब्ज़ पर निर्देशक करण जौहर की पकड़ इधर ढीली हो चली थी, उसे उन्होंने फिर से कसा है। यह अलग बात है कि करण की फिल्मों की ‘फैमिलियां’ उन ‘परिवारों’ से अलग होती हैं जिनमें हम रहते हैं। यहां सब कुछ तड़कीला-भड़कीला होता है। करण और भंसाली के बारे में तो मैंने कई बार कहा ही है कि ये लोग प्याज भी खाएंगे तो 300 रुपए किलो वाला। फिल्म में खटकने को बहुत कुछ है। बहुत सारे सीन ‘फिल्मी’ हैं जिनमें तार्किकता खोजना बेकार होगा। लेकिन यह फिल्म रिश्तों और परिवार की अहमियत पर इतना सारा और ज़रूरी ज्ञान दे जाती है कि इसे नकारा नहीं जा सकता। और बड़ी बात यह कि यह सब ’करण-शैली’ के रस भरे, मसालेदार मनोरंजन में लिपटा हुआ है जो स्वादिष्ट भी लगता है और पौष्टिक भी। हां, बेवजह की चुम्मा-चाटी से बचा जाता तो बेहतर होता।
रणवीर सिंह चटकीले किरदार में हैं। कपड़े उन्होंने वैसे ही भड़कीले पहने हैं जो वह अक्सर असल में भी पहनते हैं। लेकिन कैसा भी किरदार हो, उन्हें उसे साधना बखूबी आता है। आलिया भट्ट प्यारी तो हैं लेकिन ज़्यादा समय वह ‘मज़ेदार नहीं असरदार’ वाले विज्ञापन मोड में ही दिखीं। जया बच्चन को देख कर लगा कि वह असल में भी ऐसी ही होंगी-सब पर हुकूमत करने वाली, किसी को कुछ न समझने वाली। धर्मेंद्र को यह रोल नहीं करना चाहिए था। हमारे दिलों में उनकी बड़ी प्यारी छवियां हैं, हम धरम जी को निरीह नहीं देख सकते। शबाना आज़मी, चूर्णी गांगुली, तोता रॉय चौधरी, क्षिति जोग, आमिर बशीर जैसे सभी कलाकारों ने हिन्दी-पंजाबी-बांग्ला-अंग्रेज़ी बोलते हुए अच्छा काम किया। नमित दास सुखद आश्चर्य की तरह लगे। अमिताभ भट्टाचार्य के गीत और प्रीतम का संगीत फिल्म को दमदार बना गया। यहां तक कि फिल्म खत्म होने के बाद आए गाने को भी ठहर कर देखने-सुनने का मन करता है जिसमें ‘हम आपके हैं कौन’ (1994) के बाद ‘कुड़माई’ (सगाई) शब्द सुनने को मिला।
हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री के मसालेदार वर्ज़न यानी ‘बॉलीवुड’ पर दुनिया फिकरे-ताने कसती है लेकिन सच यही है कि जब खालिस एंटरटेनमैंट की बात आती है तो इसी ‘बॉलीवुड’ का ही ढोल बजता है। यह फिल्म भले ही परफैक्ट न हो, लेकिन यह आपका मनोरंजन कर पाने में कहीं भी इम्परफैक्ट नहीं रही है। देखिए इसे।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-28 July, 2023 in theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
No काम…. no much….
Reviews एक dum सच….😊👌🏻
हा… हा… धन्यवाद…
Time waste nhi krege
Thank you sir
Ek dum bdia review
Thanks…
एक शानदार और जानदार रिव्यु….
फ़िल्म वाकई इंटरटेइनिंग हैं.. धर्मेंद्र जी वाले जुमले पर मैं आपसे सहमत हूं…. चलो अरसे बाद एक फॅमिली एंटरटेनमेंट वाली एक फ़िल्म तो देखने को मिली…
धन्यवाद