-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
गुजरात के कच्छ इलाके का एक गांव। मर्दों का वर्चस्व। औरतों का कोई मान नहीं। हर 15 दिन में ये औरतें चुपके से रात को गांव के बाहर अपनी ‘सिसोटी’ (सोसायटी) में मिलती हैं। नाचती हैं, गाती हैं, बीड़ी फूंकती हैं, हंसती हैं, दुख-सुख बांटती हैं और पैसे भी जमा करती हैं। सिसोटी की हैड बाई जी की बहू है मोंघी। इस सुघड़ गृहिणी का पढ़ा-लिखा पति उसे अपने बराबर नहीं पाता। इसीलिए शादी के 22 साल बाद भी इनके मन नहीं मिल पाए हैं। मोंघी अपनी ओर से भरसक कोशिश करती है लेकिन पति किसी दूसरी के साथ व्यस्त है। तो अब मोंघी क्या करेगी? कैसे वह अपने पति को वापस लाएगी? या फिर वह खुद कहीं और चली जाएगी?
नारी को सशक्त करने की बात करती इस फिल्म की कहानी नई भले ही न हो, बुरी नहीं है। अपनी कमपढ़ पत्नी की बजाय किसी चमकती सूरत की तरफ आकर्षित मर्द, पत्नी का खुद को पति की छांव से निकाल कर स्थापित करने, अपनी पहचान बनाने की कहानियां दर्शकों को भाती रही हैं। यहां भी कहानी को कायदे से विस्तार दिया गया है जिसमें पति की प्रेमिका, मोंघी का जवान बेटा, उसकी गर्लफ्रैंड, गांव की औरतें, मोंघी की मदद को आया एक परदेसी और इनसे बढ़ कर हर कदम पर साथ देती सास जैसे किरदार हैं जो कहानी के पांव जमाने में सहयोग करते हैं। लेकिन इस फिल्म के साथ एक बड़ी दिक्कत भी है।
दरअसल यह फिल्म भरोसा कायम नहीं कर पाती। जिन किरदारों को यह प्रमुखता से दिखाती है, उन्हें यह ठीक से स्थापित ही नहीं कर पाती। लगभग हर किरदार डावांडोल है, विरोधाभास का शिकार है, कह कुछ रहा है, कर कुछ और ही रहा है। जिन हालात में ये किरदार रह रहे हैं, वे भी विश्वसनीय नहीं बन पाए हैं। मसलन पूरा गांव कहता है कि मोंघी के पति ने शादी के 22 साल भी उसे हथेलियों पर रखा हुआ है, जबकि फिल्म यह नहीं दिखाती। मोंघी से सब प्रभावित हैं, लेकिन उसका पति उसके प्रभाव में नहीं आता। मोंघी सशक्त होना चाहती है, होती भी है, लेकिन बेचारियों की तरह पति के सामने गिड़गिड़ाती रहती है। पति भटका हुआ है लेकिन अपनी गलती मान ही नहीं रहा है। मोंघी बेवकूफ या बोड़म नहीं बल्कि समझदार दिखाई है तो उसका पति क्यों उससे पटरी नहीं बिठा पा रहा है? गांव की औरतें छुप कर क्यों मिलती हैं, इसे भी स्थापित नहीं किया गया। दरअसल इस फिल्म में ऐसी बहुत सारी बातें हैं जो अधूरी हैं, जिन्हें ठीक से जमाया ही नहीं गया। फिर तार्किकता और तथ्यों की कसौटी पर भी फिल्म कई जगह बुरी तरह लड़खड़ाई है। अचानक से कुछ भी हो रहा है जिसका उसके पिछले या आने वाले सीन से तारतम्य ही नहीं बैठ पाता। हां, संवाद कई जगह काफी अच्छे हैं लेकिन उनका दृश्यों से तालमेल नहीं लगता। यहां तक कि कहानी का अंत भी ‘फिल्मी’ है। स्क्रिप्ट पर जम कर काम किया जाता तो फिलहाल औसत लग रही यह फिल्म बेहतरीन हो सकती थी।
हिन्दी में डब होकर आई यह गुजराती फिल्म जनवरी, 2023 में थिएटरों में रिलीज हुई थी। तब मैं इसे रत्ना पाठक शाह और मानसी पारिख के कारण देखना चाहता था। अब इसे शेमारू मी पर देखते हुए इन दोनों का ही अभिनय सबसे अधिक प्रभावी लगता है। विरफ पटेल भी जमते हैं। धर्मेंद्र गोहिल और ‘तारे ज़मीन पर’ वाले दर्शील सफारी के किरदार कमज़ोर व भटके हुए रहे। गीत-संगीत भी इस फिल्म को कोई खास सहारा नहीं दे पाता जबकि कच्छ का संगीत तो मुर्दों को भी झिंझोड़ सकता है। हां, कच्छ के कई दृश्य शानदार हैं। निर्देशक विरल शाह को कसी हुई स्क्रिप्ट मिलती तो वह अधिक असरदार काम कर पाते। और हां, इस फिल्म का नाम भी इस पर फिट नही दिखता है। लगता है दर्शकों को लुभाने के लिए ‘कच्छ एक्सप्रैस’ रख दिया। बेहतर होता कि इस नाम को नायिका मोंघी की उड़ान से जोड़ा जाता।
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Release Date-03 August, 2023 on Shemaroo Me in Hindi (06 January, 2023 on theaters in Gujarati)
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(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)