-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
दिल्ली के एक फाइव स्टार होटल में ट्रेनिंग कर रहे युवाओं में से एक लड़की शिउली तीसरी मंजिल से गिर कर कोमा में चली जाती है। गिरने से ठीक पहले उसने बस यूं ही उसी ग्रुप के साथी डैन (दानिश) के बारे में पूछा था कि वो कहां है? डैन को जब यह पता चलता है तो वह अपने कैरियर और यहां तक कि खुद को भी भुला कर अपना सारा समय अस्पताल में शिउली और उसके परिवार के साथ बिताने लगता है।
बड़ी ही साधारण-सी कहानी है। ग्रुप में किसी के साथ हादसा हो तो बाकी दोस्तों पर असर तो पड़ता ही है। लोग दो-चार बार अस्पताल जाते हैं, हमदर्दी जताते हैं और फिर अपने काम-धंधे में लग जाते हैं। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो खुद को उस हादसे से, उस इंसान से, उसके परिवार वालों से जोड़ लेते हैं। जो न तो खुद उम्मीद छोड़ते हैं और न ही दूसरों को छोड़ने देते हैं। डैन ऐसा ही लड़का है। हालांकि वह अक्खड़ है, नाराज़-सा रहता है, कोई भी काम सलीके से नहीं करता और इसी वजह से लगातार डांट भी खाता है। लेकिन शिउली के साथ हुआ हादसा और शिउली की हालत देख कर वह बदलने लगता है। दूसरों की परवाह तक न करने वाला शख्स अब मैच्योर होने लगता है।
शुरू में काफी देर तक यह स्पष्ट नहीं होता कि फिल्म क्या कहना चाह रही है। इसकी धीमी रफ्तार आपको खिजाने लगती है। लेकिन धीरे-धीरे यह आपको स्पर्श करती है, सहलाती है और हौले से आपके भीतर समाने लगती है। फिल्म का अंत आपको चौंकाता नहीं है, ज्यादा भावुक भी नहीं करता। बस, अहसास दिलाता है कि कुछ है जो अभी दिलों में जिंदा है। कुछ है, जिसके दम पर आप खुद को इंसानों में गिन सकते हैं।
जूही चतुर्वेदी पहले भी अपनी कलम से हमें प्रभावित करती रही हैं। लेकिन इस बार उन्होंने जिस सहजता से, बिना कोई उतावलापन दिखाए कहानी को अपनी रौ में बहने दिया है, वह उन्हें एक अलग ही मकाम पर ले जाता है। संवादों में जान-बूझ कर वजन भरने या भारी-भरकम शब्दों का इस्तेमाल करने से बचते हुए उन्हें किरदारों के माकूल रहने दिया गया है। बतौर निर्देशक शुजित सरकार अपनी रेंज से लगातार चौंका रहे हैं। ‘विकी डोनर’, ‘मद्रास कैफे’, ‘पीकू’ से एकदम जुदा उनकी यह फिल्म उनकी पहली फिल्म ‘यहां’ जैसी मिठास देती है। लेकिन यह उससे भी अलग है। हर फिल्म को पिछली वाली से अलग और बेहतर बनाने की उनकी काबिलियत सलामी की हकदार है।
वरुण धवन ‘बदलापुर’ के बाद एक बार फिर जताते हैं कि वह छिछोरेपन से हट कर भी किरदार कर सकते हैं। शिउली बनी बनिता संधू अपनी पहली ही फिल्म में जम कर प्रभाव छोड़ती हैं। उन्हें आंखों से बातें कहना आता है। शिउली की मां के रोल में गीतांजलि राव अहसास दिलाती हैं कि किरदार में कैसे समाया जाता है। उन्हें लगातार पर्दे पर आते रहना चाहिए। फिल्म के बीच में कोई गाना नहीं है। इसकी जरूरत भी नहीं थी। अंत में आने वाले ‘मनवा रुआंसा…’ में सुनिधि चौहान एक बार फिर चरम छूती नजर आती हैं। शांतनु मोइत्रा का संगीत फिल्म की रूह को छूता है।
फिल्म का नाम ‘अक्टूबर’ क्यों है? इस नाम का नायिका शिउली के नाम से क्या नाता है? यह फिल्म सब बताती है। लेकिन इसके लिए आपको सब्र से इसे देखना होगा। तेज रफ्तार और तीखे मसालों के आदी हो चुके लोगों के लिए इसे जज़्ब करना मुश्किल होगा।
‘अक्टूबर’ जैसी फिल्में उम्मीदें जगाती हैं-सिनेमा के लिए और अपने आसपास की जिंदगी के लिए भी। मन होता है कि डैन जैसे इंसान और भी हों तो यह दुनिया कुछ ज्यादा सुहानी हो जाए।
अपनी रेटिंग-साढ़े तीन स्टार
Release Date-13 April, 2018
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)